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की सफलता हो तो जैसे कुशाग्रबुद्धि आज्ञानिबद्ध हृदय आचार्यों ने अधिकमास को गिनती में नहीं लिया है उसी तरह तुम्हें भी लेखा में नहीं लेना चाहिये । जिससे पूर्वोक्त अनेक दोषों से मुक्त होकर आज्ञा के आराधक बनोगे । वादी की शङ्का यहां यह है कि अधिक मास में क्या भूख नहीं लगती, और क्या पाप का बन्धन नहीं होता, तथा देवपूजादि तथा प्रति. क्रमणादि कृत्य नहीं करना ? । इसका उत्तर यह है कि क्षुधावेदना, और पापबन्धन में मास कारण नहीं है, यदि मास निमित्त हो तो नारकी जीवों को तथा अढाईद्वीप के बाहर रहनेवाले तिर्यञ्चों को क्षुधावेदना तथा पापबन्ध नहीं होना चाहिये । वहाँ पर मास पक्षादि कुछ भी काल का व्यवहार नहीं है । देवपूजा तथा प्रतिक्र. मणादि दिन से बद्ध है मासबद्ध नहीं है। नित्यकर्म के प्रति अधिक मास हानिकारक नहीं है, जैसे नपुंसक मनुष्य स्त्री के प्रति निष्फल है किंतु लेना लेजाना आदि गृहकार्य के प्रति निष्फल नहीं है उसीतरह अधिकमास के प्रति जानों। जैन पञ्चाङ्गानुसार तो एकयुग में दो ही अधिक मास आते हैं अर्थात् युग के मध्य में आसाढ़ दो होते हैं और युगान्त में दो पौष होते हैं । दो श्रावण, दो भाद्र, और दो आश्विन वगैरह नहीं होते । इस भाव की सूचना देने वाली पाठ
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