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और सत्य पक्ष का निरादर करने के लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करते दिखाई पड़ते हैं । जैसे दृष्टान्त यह है कि "तत्र वार्षिक पर्व भाद्रपदसितपञ्चम्यां, कालिकसूरेरनन्तरं चतुर्थ्यामेवेति” अर्थात् भाद्रपद सुदी पञ्चमी का साम्वत्सरिक पर्व था पर युगप्रधान कालिकाचार्य के समय से चतुर्थी में वह पर्व होता है । ऐसे सुस्पष्ट अक्षरों का दर्शन रहते भी “वासाणं सवीसइराइ मासे वइक्कते, सत्तरिएहिं राइदिएहिं सेसेहि" इत्यादि समवायाङ्ग सूत्र के पाठ का पूर्वभाग “सवीसइ राइमासे वइकते" पकड़कर उत्तर पाठ की क्या गति होगी इसका विचार न रख मूलमन्त्र को अलग छोड़कर दूसरे श्रावण के सुदी में पर्युषणापर्व के पांच कृत्य
"संवत्सरप्रतिक्रान्तिलृञ्चनं चाष्टमं तपः । सर्वार्हद्भक्तिपूजा च सङ्घस्य क्षामणं मिथः” ॥ १ ॥ (अर्थात् १ सांवत्सरिक प्रतिक्रमण, २ केशलुञ्चन, ३ अष्टमतपः, ४ सर्व मन्दिर में चैत्यवन्दन पूजादि, ५ चतुर्विध संघ के साथ क्षमापणा) करते हैं और भक्तों को कराते हैं । वस्तुतः तो भगवान् की आज्ञा के आराधक भव्यजीवों पर कल्पित दोषों का आरोप करके अपने भक्तों को भ्रमजाल में फंसाकर संसार बढ़ाते हैं। उन जीवोंपर भाव दया लाकर सिद्धान्तानुसार परोपकार दृष्टि से पर्युषणाविचार लिखा
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