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( २४ ) ढूंढिया-यक्ष को भी चैत्य कहा है।
मन्त्री-आपका यह कहना भी असत्य है, क्योंकि जैनसूत्रों में किसी भी स्थान में यक्ष को "चैस" नहीं कहा है । यदि कहा है तो आप सूत्रपाठ दिखलावें, ऐसे ही बातें बनाने से नहीं माना जाता और जो आप लोग मूर्ति नहीं मानते हैं तो आप लोगों को कोई पुस्तक न पढ़ना चाहिये क्योंकि पुस्तक भी केवल ज्ञानस्थापना है । ज्ञान एक अरूपी पदार्थ आत्मा का ज्ञान गुण है, (क) (ख) (ग) अथवा (आ) (ब) (प) (त) आदि २ अक्षरों में स्थापना बनाई हुई है। इसलिए उनको भी जैनशास्त्रों में अक्षर श्रुतज्ञान माना है। इस वार्ता को आपलोग भी मानते हैं, । अब तनक ध्यान दीजिए कि जब पत्र और मसी जड़पदार्थों को अक्षरज्ञान माना, तो भगवान् की मूर्तिको भगवान क्यों न मानाजाए ? और यथा सन्मान और पूजाभक्ति शास्त्रकी की जाती है वैसे ही भगवान् की मूर्तिकी पूजा क्यों नहीं करते हो ? ॥
दंढिया-अक्षरको हम श्रुतज्ञान नहीं मानते हैं प्रत्युत उससे जो ज्ञान उत्पन्न होताहै उसका नाम श्रुतज्ञान है ॥
मंत्री-इमारा भी तो यह कहना है कि हम भी मूर्तिको भगवान्, नहीं मानते हैं प्रत्युत उससे जिस पदार्थका ज्ञान होता है, उसको ही हम भगवान मानते हैं, अब आपको ध्यान देना चाहिए कि आप लोग शास्त्र को पढ़ने वाले मूर्ति पूजासे कैसे दूर हो सक्ते हैं । क्योंकि समस्त शास्त्र भी जड़ स्वरूप हैं और ज्ञान की स्थापना हैं। यदि प्रत्येक भाषा में अक्षरों
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