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( ६ ) न स तं प्रतिजग्राह नैषादिरित चिन्तयन् । शिष्यं धनुषि धर्मज्ञस्तेषामेवान्यवेक्षया ॥ स तु द्रोणस्य शिरसा पादौ गृह्य परन्तपः । अरण्यमनुसम्प्राप्य कृत्वा द्रोणं महीमयम् ।। तस्मिन्नाचार्य वृत्तिश्च परमामास्थितस्तदा। इध्वस्त्रेयोगामतस्थे परं नियममास्थितः ॥ परयाश्रद्धयोपेतो योगेन परमेण च । विमोक्षादानसन्धाने लघुत्वं परमाप सः ॥३५॥
महाभारत आदिपर्व अध्याय १३४ • इस अध्याय के ३० श्लोकों में एकलव्यके चरित्र का वर्णन है, जब द्रोणाचार्य की प्रशंसा दर २ तक फैल गई तो एक दिन निषदराज हिरण्यधनुषका पुत्र एकलव्य द्रोण के पास धनुर्विद्या सीखने के लिए आया, द्रोणाचार्य ने उसे शूद्र जान कर धर्नुर्वेद की शिक्षा न दी,तब वह मनमें द्रोणाचार्य को गुरु मान कर और उनके चरणों को छूकर बनमें चला गया, और वहां द्रोणाचार्य की एक मट्टी की मूर्ति बनाकर उसके सामने धनुविद्या सीखने लगा, श्रद्धा की अधिकता और चित्तकी एका ग्रता के कारण वह थोड़े ही दिनों में धनुर्विद्या में अच्छा निपुण होगया, एक वार द्रोणाचार्य के साथ कौरव और पाण्डव मृगया. खेलने के लिए बनमें गए, उनमें से किसी के साथ एक कुत्ता भी गया था, वह कुत्ता इधर उधर घूमता हुआ यहां जा निकला कि जहां एकलव्य धनुर्विद्या सीख रहे थे, कुसा उनको देखकर भौंकने लगा,तब एकलव्य ने सात तीर ऐसे मारें कि जिनसे कुत्ते
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