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कि आप अग्निपूजक हो अथवा अग्नि को ईश्वर की स्थापना समझ कर पूजते हो ॥ - आर्य-नहीं जी नहीं,हम स्थापना नहीं समझते, हमारा तो यह ख्याल है कि होम करने से वायु शुद्ध होजाती है, जिसकी वासना जगत् में दर २ तक पहुंच जाती है और अशुद्ध वायु पवित्र होजाती है और लोक बीमारी से बच जाते हैं ॥ .
मन्त्री-महाशय जी ! यदि ऐसा ही है तो वेदी इत्यादि बनाने की क्या आवश्यकता है और अमुक वर्ण हो और वेदी द्वादशाङ्गल प्रमाण हो इन बातों से क्या अभिप्राय है। सीधे साधे चूल्हे में ही इन वस्तुओं को जला लेवें सुगन्धि स्वयमेव विस्तृत हो जाएगी। और यदि यह बात स्वीकार भी की जावे, तो फिर आप अग्निहोत्र करते समय श्रुतिआं और मन्त्र इत्यादि क्यों पढ़ा करते हैं। वायु तो ऐसे ही वेदी में घृत इत्यादि वस्तु डाल कर जलाने से शुद्ध होसक्ती है । बस इससे मालूम होता है कि जैसे हमलोग ईश्वर की प्रशंसा में श्लोक पढ़ते हैं और मूर्ति की पूजा करते हैं वैसे ही आप भी ईश्वर की प्रशंसा में श्रुति पढ़ते और अग्निपूजा करते हैं और होम इत्यादि करने से तो
आप लोग अग्निपूजक सिद्ध होते हैं। भेद केवल इतना है कि हमारी पूजा की सामग्री तो किसी पुजारी आदि के काम आजाती है और आपकी सामग्री भस्म होकर मृतिका में मिल जाती है । महाशय जी ! मूर्तिपूजा से आप लोग कदापि छूट नहीं सक्ते, और देखिए, कि आपके स्वामी दयानन्द जी के बनाए हुए सत्यार्थप्रकाश में लिखा है कि मनको दृढ़ करने के लिये पृष्ठकी अस्थि में ध्यान लगाना चाहिए । अब सभा को ध्यान
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