________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ६२ )
इसका अर्थ यह है | सहस्रनाम वाला जो परमेश्वर है उसी की स्वर्णादि धातुओं से बनाई हुई मूर्ति को प्रथम अत्रि में डाल कर इसका मल दूर करना चाहिए, इसके बाद दूधसे उस परमात्मा की मूर्ति को धोना और शुद्ध करना चाहिए, क्योंकि शुद्ध और स्थापना की हुई मूर्ति पुरुष को दीर्घायुः और बड़ा प्रतापी बना सक्ती है । देखो, इस वेदपाठ से प्रत्यक्ष मूर्त्तिपूजा सिद्ध होती है । यदि अब भी आप न मानें, तो क्या किया जाए। फिर तो केवल आपका हर ही है । लो और सुनिए कि सामवेद के पाञ्च प्रपाठक के दशम खण्ड में लिखा है, कि
---
(4
यदा देवतायतनानि कम्पन्ते देवताः प्रतिमा हसन्ति रुदन्ति नृत्यन्ति स्फुटन्ति खिद्यन्ति उन्मीलन्ति निमीलन्ति " ||
इस श्रुति का आशय यह है कि जिस राजा के राज्य में वा जिस समय में शयनावस्था में वा जागृतावस्था में ऐसा प्रतीत हो कि देवमन्दिर कांपते हैं तो देखने वाले को जरूर ही कोई कष्ट मिलेगा अथवा देवता की मूर्ति रोती नाचती अङ्गहीन होती आंखों को खोलती वा बन्दकरती दृष्टिगोचर हो तो समझना चाहिए, शत्रु की ओर से कोई कष्ट जरूर होगा । देखिए, इस श्रुति से भी प्रत्यक्ष प्रतीत होता है कि मूर्तिपूजा पूर्व भी थी, और वेदों में भी है । इसलिये आप मूर्तिपूजा को अयोग्य किसी प्रकार नहीं कह सक्ते हैं । और एक बात यह भी है कि आप 'लोक वेदी आदि बनाकर अग्नि में घृतादि उत्तम २ वस्तुएं डाल कर जलाते हैं (वा होम करते हैं ) इस पर हम यह कह सक्ते हैं
* यह वैदिक धर्मीयों का मानना है ।।
For Private And Personal Use Only