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( ६४ ) करना चाहिए कि भला परमात्मा की मूर्ति में ध्यान लगाने से तो परमात्मा में प्रीति आएगी, और उनके गुणों का स्मरण होगा परन्तु सत्यार्थप्रकाश के सातवें समुल्लास में "शौचसन्तोष तपः स्वाध्यायेश्वर" इस योगसूत्र का अर्थ करते समय स्वामी दयानन्द जी ने लिखा है कि जब मनुष्य उपासना करना चाहे तो एकान्त देश में आशन लगाकर बैठे और प्राणायाम की रीति. से बाह्य इन्द्रयों को रोक मनको नाभिदेश में रोके वा हृदय कण्ठ नेत्र शिखा अथवा पीठ के मध्य हाड़में मनको स्थिर करे । इस . "हड्डीपूजा से तो मूर्तिपूजा"अच्छी है, पृष्ठकी अस्थि देखने वाले को या इसमें ध्यान लगाने वाले को क्या लाभ होसक्ता है। इस वास्ते आपको पृष्ठकी अस्थि को छोड़कर परमात्मा की मृत्ति में ध्यान लगाना चाहिए, क्योकि तुम्हारी पृष्ठका अस्थि से परमात्मा की मूर्ति सहस्रगुण लाभ पहुंचाने वाली है। ___इन सब प्रमाणों से स्पष्ट है कि मूर्तिपूजा सर्वथा वेदानुकूल है तथा वैदिकमतानुयायिओं का आन्हिक कर्तव्य है अब एक दो उदाहरण इस बातके और दिखाए जाते हैं कि तुम लोगों के पूर्वज प्रतिमा पूजनको ठीक मानते रहे और उन्हों ने तदनुकूल आचरण भी किया ॥ महाभारत के आदिपर्व में एक उपाख्यान उस समय का मिलता है जबकि हस्तिनापुर में द्रोणाचार्य जी पाण्डव और कौरवों के अस्त्रशिक्षा देरहे थे उनकी प्रशंसा सुन कर प्रतिदिन अनेक क्षत्रिय उनके पास धनुर्वेदविद्या सीखने के लिए आते थे। 'ततो निषादराज्स्य हिरण्यधनुषः सुतः । एकलव्यो महाराज द्रोणमभ्याजगाम ह ।।
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