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का मुंह बन्द होगया, वह कुता पाण्डवों के पास आया, तर पाण्डवों ने इस अद्भुत रीति से मारने वाले को तलाश किया तो क्या देखते हैं कि एकलव्य सामने एक मट्टी की मूर्ति रक्खे हुए धनुर्विद्या सीख रहे हैं । अर्जुन ने पूछा महाशय ! आप कौन हैं, एकलव्य ने अपना नाम पता बताया और कहा कि हम द्रोणाचार्य के शिष्य हैं, अर्जुन द्रोणाचार्य के पास गये और कहा कि महाराज ! आपने तो कहा था कि हमारे शिष्यों में धनुर्विद्या में तुम्हीं सबके अग्रणी होंगे परन्तु एकलव्य को आपने मुझसे भी अच्छी शिक्षा दी है, द्रोणाचार्य ने कहा कि मैं तो किसी एकलव्य को नहीं जानता,चलो देखें कौन है । वहां जानेपर एकलव्य ने द्रोणाचार्य का पदरज मस्तक पर धारण किया और कहा कि आपकी मूर्ति की पूजा से ही मुझे यह योग्यता प्राप्त हुई है, आप मेरे गुरु हैं, द्रोणाचार्य ने कहा कि फिर तो हमारी गुरुदक्षिणा दो, एकलव्य ने कहा कि आप जो कहें सो मैं देने को सय्यार हूं, तब द्रोणाचार्य ने उसका अंगूठा दक्षिणा में मांगा, और एकलव्य ने देदिया, अंगूठा न रहने के कारण फिर एकलव्य में वैसी लापरता न रही और द्रोणाचार्य की प्रतिज्ञा भी पूर्ण हुई। देखिए पाठक ! द्रोणाचार्य की मूर्ति पूजा से ही एकलव्य अर्जुन-से धनुर्विद्या में उत्कृष्ठ होगया तो फिर जो लोग अहरहः देवपूजन करेंगे उनके कौनसे मनोरथ सिद्ध न होंगे ? अथ वाल्मीकीय रामायण (जिसे संस्कृत साहित्यमें आदि काव्य होने की महिमा मास है) को भी देख लीजिए, जिस समय मर्यादा पुरुषोतम रामचन्द्र जी रावणादि राक्षसों को मारकर पुष्पक
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..* यह वैदिक लोकों का कहना है न कि हमारा ॥
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