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देवागाराणि शून्यानि नभान्तीह यथा पुरा । देवताचीः प्रविद्धाश्व यज्ञगोष्ठास्तथैव च " ॥
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अर्थ-देवताओं के मन्दिर शून्य दीखते हैं, आज वैसे शोभायमान नहीं हैं जैसे पहिले थे । प्रतिमाएं पूजारहित हो रही हैं उनके ऊपर धूप दीप पुष्पादि चढ़े नहीं देखते, यज्ञों के स्थान भी यज्ञकार्य से रहित हैं ।
इन सब प्रमाणों से स्पष्ट प्रकट है कि मूर्तिपूजा सनातन है, त्रेता और द्वापर तक का जो वृत्तान्त मिलता है उनसे स्पष्ट प्रकट है कि यहां बड़े २ देवमन्दिर थे, जिनमें निस पूजा होती थी, विद्वान् पूजा करते थे ॥
हे महाशय जी ! अब तनक ध्यान तो करो कि जब आप के पूर्वज प्रतिमा का पूजन करके प्रत्यक्ष फल प्राप्त कर गए हैं, यदि आप भी मूर्तिपूजन करेंगे तो आपकी अभिलाषा अवश्य ही पूर्ण तो होजाएगी और निःसन्देह सुख प्राप्त होगा ॥
आर्य-मला श्रीमन् ! मूत्ति को तो इसप्रकार से “ कि इससे ईश्वर के स्वरूप का ज्ञान होता है " मानलिया, और यह समझकर परमात्मा की मूर्ति का सम्मान भी किया और सिर भी झुकाया, परन्तु इस पर फूल फल के सर चंदन धूप दीप चावल और मिठाई इत्यादि चढाने से क्या तुम्हारा लाभ है ? |
मन्त्री - महाशय जी ! क्योंकि वस्तु के विना भाव नहीं आरक्ता, इस वास्ते भगवान की मूर्ति पर उक्त वस्तुओं का चढ़ाना आवश्यक है और ऊपर लिखित वस्तु चढ़ाते समय नीचे लिखी हुई भावना करते हैं |
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