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( ४८ ) ऐसा ही होता है । और यदि केवल इसको हाथी का नामही बतलाया जाये तो इसको हाथी का ज्ञान प्राप्त न होगा कि हाथी कैसा होता है। इस दृष्टान्त से भी सिद्ध होता है कि मूर्ति अवश्य माननी चाहिए । और भी तुम्हारे गुरु स्वामी दयानन्दजी की बनाई हुई सत्यार्थप्रकाश से सिद्ध होता है कि मूर्ति अवश्य माननी चाहिए।
आर्य-हां ! आपने तो यह आश्चर्ययुक्त बात मुनाई भला यह बात होसक्ती है कि हमारे स्वामी जी मूर्ति का मानना लिखें? कदापि नहीं।
मन्त्री-आप क्यों व्याकुल होते हैं, यदि हमारे कहने पर आपको विश्वास नहीं आता, तो सत्यार्थप्रकाश के पृष्ठ ३७ पर देखलो । जहां अग्निहोत्र की विधि और इसके सम्बन्ध में आपश्यक सामग्री का व्याख्यान किया है । इतनी लम्बी चौड़ी चौकोन वेदी और ऐसा प्रोक्षणी पात्र और इस प्रकार का प्रणीतापात्र और इस प्रकार की आज्यस्थाली और इस नमूनें का चिमचा बनाना चाहिए अब तनक ध्यान करो कि यदि स्वामीजी मूर्ति को नहीं मानते थे तो वह अपने सेवकों को चित्र के बिना उक्त स्वरूपों को क्यों न समझा सके।
आर्य-श्रीमन् ! हम इन चित्रों को निश्चय करके वेदी इत्यादिक तो नहीं मानते, हम तो केवल इन चित्रों को असली वेदी इत्यादि के ज्ञान होने में निमित्त मानते हैं । । मन्त्री-इम भी तो ऐसा ही कहते हैं कि मूर्ति ईश्वर तो नहीं, परन्तु ईश्वर के स्वरूपका स्मरण कराते में कारण है।
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