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( ५९ ) की सिद्धि का वर्णन है । जब अवतारों को मानलिया तो मूर्ति का स्वीकार करना स्वयं ही सिद्ध होगया और मनुस्मृति के अध्याय ८ श्लोक २४८ से भी प्रत्यक्ष ज्ञात होता है कि देवता शब्द का अर्थ प्रत्येक स्थान पर विद्वान् नहीं हो सक्ता है। श्लोक यह है, यथा"तड़ागान्युदपानानि वाप्यः प्रश्रवणानि च सीमासन्धिषु कार्याणि देवतायतनानि च ॥इति। __ और देखिए, यजुर्वेद के १६ अध्याय के अष्टम मन्त्र में यह लिखा है ॥ यथानमस्ते नीलग्रीवाय सहस्राक्षाय मी डुषे
अथो ये अस्य सत्वानो हन्तेभ्यो करन्नमः - मन्त्रार्थ-नीलग्रीवाय सहस्त्राक्षाय मदुिषे नमः अस्तु अथो अस्य ये सत्वानः तेभ्यः अहम् नमः अकरम्, इति मंत्रार्थः)
भावार्थ-नीलकण्ठ सहस्त्रनेत्र से सब जगन को देखने वाले इन्द्ररूप वा विरारूप सेचन में समर्थ पर्जन्यरूप वा वरुणरूप रुद्र के निमित्त नमस्कार हो और इस रुद्र देवता के जो अनुचर देवता हैं उनको मैं नमस्कार करता हूं। देखिए इस श्रुति में हमार नेत्रवाला और श्याम ग्रीवा वाला" यह लेख ईश्वर के शरीर धारण करने को प्रत्यक्ष सिद्ध कर रहा है क्योंकि शरीर के विना नेत्र वा कण्ठ किसी प्रकार से नहीं हो सक्ते हैं।
और देखिए, यजुर्वेद के १६ अध्याय के म मन्त्र में ऐसा लिखा है । यथा
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