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पिता गुरु आदि किसी मनुष्य का आदर सत्कार इसलिए नहीं लिया जासक्ता कि इसी मनु के द्वितीयाध्याय में माता पिता गुरु आदि मान्यों की पूजा, आदर, सेना, पृथम् २ कही है। अग्निहोत्र का विधान सस्त्रीक गृहस्थ के लिए है, अग्निहोत्र के स्थान में ब्रह्मचारी के लिए समिदाधान कर्म है। पाणिनीय अष्टाध्यायी
अ० ५ पा० ३ म० ११ के अनुसार वासुदेव तथा शिवकी पतिमाओं का नाम भी "कन्” प्रत्यय का “लुप्" होजाने पर वासुदेव तथा शिव ही होता है । इसी के अनुसार देवता की प्रतिमा का नाम भी “कन्" का "लुप्" होजाने से देवता ही बोला जाएगा, (वासुदेवस्य प्रतिकृतिर्वासुदेवः । शिवस्य प्रतिकृतिः शिवः । देवतायाः प्रतिकृतिर्देवता । तस्या अभ्यर्चनं देवताभ्यर्चनम्) मनु में कहे हुए देवताभ्यर्चन"पदका स्पष्टार्थ विष्णु शिवादि देवों को प्रतिमाओं का पूजन ब्रह्मचारी को नि: यम से करना चाहिए यही सिद्ध होता है। मनु के टीकाकारों की सम्मति भी देवप्रतिमा पूजने में रपष्ट है। यथा
गोबिन्दराजः-( देवतानां हरादीनां पुष्पादिनार्चनम् । मेधातिथिः-अतः प्रतिमानामेवैतत्पूजनविधानम् । सर्वज्ञनारायणः-देवतानामर्चनं पुष्पायैः। कूल्लूकः-पतिमादिषु हरिहरादिदेवपूजनम् ।
मनुस्मृति के टीकाकार पं० गोविन्दराज जी कहते हैं कि यहां देवता शब्द से शिवादि देवता अभीष्ट हैं पुष्पादि से पूजन करना देवताभ्यर्चन कहा जाता है। मेधातिथि कहते हैं कि यहां प्रतिमाओं ही का पूजन अभिमत है
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