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( ५३ )
चेतन से भी अधिक लाभ पहुंचा सक्ती है, यथा- आत्मा का ज्ञान गुण है, इसलिए पदार्थों को आत्मा ही देख सक्ता है परन्तु फिर भी आत्माकी चक्षुः इत्यादिक इन्द्रियों की सहायता की आवश्यकता पड़ती है, क्योंकि जब चक्षुः किसी हेतु से नाश हो जाते हैं तो पदार्थोंका दर्शन नहि होसक्ता, अब ध्यान करना चाहिए कि पदार्थों का दर्शन क्यों नहि होता, क्या देखने वाला आत्मा विद्यमान नहीं, तो कहना ही पड़ेगा कि आत्मा तो अवश्य विद्यमान है परन्तु सहायक चक्षुओं के नाश होजाने से पदार्थों का दर्शन नहिं होता है अब आप ही न्याय से कहें कि जड़का कितना प्रभाव है कि जिसके न होने के कारण आत्मा मी पदार्थो को नहिं देख सक्ता है । लो और सुनो। कि आंखें सचेतनता के होने पर भी अपने आपको नहिं देख सक्ती हैं, परन्तु जब आदर्श सन्मुख किया जावे तो शीघ्र ही आंखें अपने आपको देख लेती हैं, या ऐसे कहो कि अपनी आंखें आपको नज़र आने लग पड़ती हैं, देखिए कि इस जगह हमको जड़ रूप आदर्श किस प्रकार लाभ पहुंचाता है ऐसे ही मूर्ति भी ईश्वर परमात्मा का बोध करा सक्ती है । और भी देखिए कि मनुष्य अपने देखने की पूर्ण शक्ति होते भी एक आध मील से ज्यादा दूर कदापि नहीं देख सकता परन्तु दूरबीन लगाकर देखा जाए तो दुस २ मील से भी अधिक दूर की वस्तु दृष्टि गोचर होती है, अब देखना चाहिए कि दूरबीन एक जड़गदार्थ है परन्तु इस में कितनी शक्ति है और कितना लाभ देने वाली वस्तु है । हे प्यारे ! न्याय की दृष्टि से तो मेरी इन युक्तिओं और प्रमाणों से आपको मान लेना चाहिए कि मूर्तिपूजा वस्तुतः ठीक है ।
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