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( २९ ) मुनाकर चित्र के दिये विना कार्य नहीं चलसक्ता ? मान्यवर ! न्यायालय में यदि कहें कि चित्र की आवश्यकता नहीं, हम अपने मुख से सब वृत्तान्त समझा देते हैं, तो शीघ्र ही मुख पर चपेट लगती है, और धक्के भी मिलते हैं कि जाओ चित्र बनाकर लाओ, चित्र के विना कार्य का होना असम्भव है । और जब किसी को लम्बी यात्रा करनी हो तो प्रायः प्रथम ही रेलवे चित्र देख लिया जाता है कि अमुक मार्ग (लैन ) कहां से पृथक् होता है अमुक नगर किस तरफ है विना चित्र के कुछ भी समझ में नहीं आता। और स्कूलों में भी लड़के चित्र के आश्रय से नगरों का वृत्तान्त समझते हैं। आपको शुद्धचित्त होकर विचार करना चाहिये कि जब सांसारिक काम भी मूर्ति के विना नहीं चलसक्ते तो उस परोक्ष परमात्मा का ध्यान मूर्ति के विना कैसे होसक्ता है। और बड़े शोक की बात यह है कि आप लोग अपने गुरु की समाधि को जिसमें कि केवल शिला और चूनें के विना और कुछ भी नहीं है, मस्तक झुकाते हैं और वहां पर प्रसाद बांटते हैं, किन्तु केवल परमात्मा वीतराग की मूर्ति के सन्मुख ही सिर झुकाना आपको व्यर्थ प्रतीत होता है, समाधि आदि का सत्कार तो किया जाता है परन्तु किस की शक्ति है जो वहां पर जूता तो लेजाए ॥
ढूंढिया-क्यों साहिब ! हम गुरु की समाधि पर जूता कैसे जानेदें। और इसका अपमान हम लोग कैसे कर सक्ते हैं।
मन्त्री-वीतराग परमात्माकी मूर्ति जो कि जगद्गुरुकी मूर्ति
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