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से भी अधिक पवित्र है, पूजा और सन्मान करना चाहिए, परन्तु आप साहिब उक्त वृत्तान्त से जड़ वस्तु की पूजा करते हुए भी मूर्तिपूजा पर आक्षेप करते हैं, सो अत्यन्त अयोग्य और समझ के प्रतिकूल है। अन्त में सिक्ख भाई तो निरुत्तर होकर चुप्प होगए, परन्तु एक आर्य साहिब मूछों पर हाथ फेर कर तत्क्षण आगे बढ़े और इनके साथ मंत्री जी के निम्न लिखे हुए प्रश्नोत्तर हुए।
मन्त्री-क्यों महाशय जी भला आप मूर्तिपूजा को मानते हो या नहीं।
आर्य-नहीं, श्रीमन् ! हम तो मूर्ति को कदापि नहीं मानते, क्योंकि मूर्ति तो जड़ है और जड़ से कोई लाभ भी प्राप्त नहीं हो सकता है।
मन्त्री-महाशय जी ! यह तो केवल कहने की मिथ्या वार्ता है कि हम मूर्ति को नहीं मानते हैं, यदि इर्षाभाव को छोड़ कर ध्यान किया जाए आप तो क्या कोई मत भी मूर्तिपूजा से किसी प्रकार से छूट नहीं सक्ता है । महाशय जी ! मुझे इस बात में सन्देह है कि आप भी ईसाइ साहिबान की तरह तो नहीं कहते, जिनका यह कथन है कि हमलोग मूर्तिपूजक नहीं हैं वस्तुतः तो इनका एक रोमन कैथलिक मत भली प्रकार मूर्ति पुजक है, क्योंकि वह हजरत मप्तीह और मरिअमके चित्रों को गिर्जाघर में रख कर फल फूलादि चढ़ाते और उनकी पूजा करते हैं और रूस के तो सर्व मतानुयायी मूर्तिपूजक हैं। तदनन्तर मुअल्लिफ किताब दिल्लबस्तान मजाहिब अपने पुस्तक में लिखते हैं कि हजरत ईसामसीह सूर्य की पूजा करते थे और
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