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( ३९ )
रविवार के दिन सूर्य की पूजा करते हैं। इसी वास्ते ईसाइ लोग आदित्यवार के दिनको पूजा और सन्मान का दिन मानते हैं।
आर्य- नहीं श्रीमन् ! नहीं, भला हम स्वामी दयानन्द के अनुयायी होकर जड़की पूजा कर सक्ते हैं ? । तीनों काल में अर्थात् भूत भविष्यत वर्त्तमान काल में यह वार्ता असम्भव है |
मन्त्री - महाशय जी ! मूत्तिपूजा जड़पूजा में मिश्रित नहीं है क्योंकि मूर्त्तिपूजा जड़की पूजा नहीं हो सक्ती । प्रत्युत वह तो चेतन की पूजा होती है ।
आर्य - श्रीमन् ! यदि ऐसे हो तो आप कोई दृष्टान्त देकर भली प्रकार समझा देवें ।
मन्त्री - लो जी तनक सावधान होकर सुनो, कि याद कोई आर्य समाजी किसी परम विद्वान् संन्यासी की प्रत्येक प्रकार से सेवा करता है और जब संन्यासी महाराज जी समस्त दिन ज्ञान ध्यान के कारण थक जाते हैं, तो समाजी उनकी टांगों और शरीर आदि को अत्यन्त दबाता है, महाशय जी ! अब आप बतलाइए कि उस आर्य समाजी को इस तरह दिन रात्री परम भक्ति और सेवा से कुच्छ फल प्राप्त होगा या नहीं ? |
आर्य-अजी क्यों नहीं, अवश्य प्राप्त होगा, क्योंकि यदि ऐसे महात्मा की सेवा करने से भी फल प्राप्त न होगा, तो और किसकी सेवा से फल माप्त होगा ।
मन्त्री - वाह ! जी वाह ! यह सेवा तो जड़ शरीर की थी और जड़की सेवा निष्फल होती है, तो फिर आप इस सेवा का फल कैसे मानते हो ?
आय - श्रीमन् ! विद्वान् का शरीर जड़ नहीं हो सक्ता, क्योंकि इसमें तो जीवात्मा विद्यमान है।
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