Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 164
________________ सिरिमुनिसुव्वयजिणिदचरियं तो मणिचूडो हारं पहिट्ठहियओ खिवेइ नियकंठे । इय जपंतो एक्को गाहत्थो ताव एस कओ ।।४२१४॥ बीयं गाहत्थं पुण इन्हि तुह मंतणेण साहिस्सं । तुह विन्नत्ती एसा मणे निहित्ता मए सव्वा ।।४२१५।। एत्थ पुण कारणं पि हु तुज्झ पुरो संपयं पि साहेमि । तीसे मज्झ वि तुल्लो परोप्परं ताव अणुराओ ।।४२१६।। एत्तियदिणाई जाओ तह वि विलंबो जमेत्थ वत्थुम्मि। तमणेण कारणेणं पभावई कणगचूडेण ॥४२१७।। मग्गाविया समीवे मह पिउणो कणयकेउणो हेउं । तेण न सा पडिवन्ना कारणओ ताव कत्तो वि ॥४२१८।। एईए संकाए मज्झ पियाकणगचूडपासम्मि । मग्गावइकणगवई मज्झ निमित्तं सयं नेय ॥४२१९।। तो कणगवई पासे पेसिस्सं जाव माणुसं कं पि। तीसे भावं नाउं करिस्समवहारसंकेयं ॥४२२०।। ताव तुमं संपत्ता तीए संपेसिया इह सयंपि । नाओ तुह पासाओ तीसे भावो मए सव्वो ।।४२२१।। ता कहसु तुम एयं मह पिउणो पत्थणाए कणगवई। सो देइ कणगचूडो मज्झ निमित्तं अह न देइ ॥४२२२।। भणियं पियंकरीए कणगवइए तुमम्मि अणुरायं । नाऊण कणगरेहाए जंपिओ कणगचूडनिवो ॥४२२३॥ पडिसिद्धा तेण परं पभावईए अलाभकोवेण । कणगवई तुह दाउं नरवइणा कणगचूडेण ॥४२२४।। तो मणिचूड़ो पभणइ पियंकरि भणसि जेणुवाएण। तेणाहं कणगवई हरामि अहसा भणइ कुमरं ॥४२२५।। पिउणो आसं मोत्तुं कणगवईएवि पेसिया अहयं । तुज्झ समीवम्मि तओ जओवहारस्थिणी सा वि ।।४२२६।। सा जाइ कामपडिमं पूएउं नंदणम्मि उज्जाणे । अट्टमि चउद्दसीसुं तया तुहावहरिउं समओ ॥४२२७।। इय तव्वणं सोउं मणिचूडो कणगवइ कयंगाहं । एवंविहस्स जोग्गा मयत्थि भुवणे तुमं चेव ।।४२२८।। इय कय नवुत्तरद्धं सत्तसरे बंधिऊण हारम्मि । एएण जुयं तत्तो आहरणं कंकणाईयं ॥४२२९।। रयणमयं वत्थाणि य पियंकरीए समप्पिउं भणइ । तं एयं जह एयं कणगवईए तमप्पेज्जा। ॥४२३०॥ संदेसं च कहेज्जा इमं जहा अज्ज दिवसओ छठे । दिवसम्मि अट्टमितिही जा होही तीए मणिचूडो॥३२३१॥ आगंतुं इंदउरे उज्जाणे नंदणम्मि तत्थ गयं । कामपडिमागिहाओ हरिस्सए तं जइ न विग्धं ॥४२३२।। अन्नं कि पि भविस्सइ इय सिक्खविउं पियंकरि कुमरो । वत्थाहरणेहिं तहा सम्माणेउं विसज्जेइ ।।४२३३।। अह सा मणिचुडकुमारजणियसम्माणहरिसिया तत्तो । उप्पइउं इंदउरे कणगवईए गया पासं ।।४२३४॥ मणिचुडपेसियं तं वत्थाहरणं समप्पिउं तीसे । गाहं च हारबद्धं कहइ तओ तेण संदिळें ।।४२३५।। कणगवई तं दह्र मणिचूडकुमारपेसियपसायं । गाहं च वाइऊणं तस्सं दिठं च सुणिऊण ।।४२३६॥ जाया पहिट्ठहियया अवगहइ तं पियंकरि पढमं । अह देइ नियंगगयं वत्थाहरणाइयं तीसे ॥४२३७॥ परिहइ सयं तु मणिचूडपेसियं वत्थभूसणाईयं । हारं च खिवइ निय कंठकंदले तयणुराएण ।।४२३८।। तो कणयकेउकज्जं पुच्छइ सिद्धं न व त्ति तप्पासे । सा कहइ न सिद्धं जं पभावईए न पडिवन्नं ।।४२३९।। तो ठाउं खणमेगं ससहोयरदुक्खदुक्खिया एसा । जंपइ पियंकरि जह तए न एयं कहेयव्वं ॥४२४०॥ तस्स पुरो जह एसो आसा लग्गो गमेइ दियहाइं । काइं वि जाव हरिउं मणिचूडो नेइ मं तत्थ ॥४२४१॥ पच्छा तह कह वि अहं पभावइं निय नणंदरं वोच्छं। जह सा पडिवज्जइ मज्झ भाउयं भट्टिभावेण ।।४२४२।। तो तुममप्पाणं गोविऊण चिठेह तेत्तिय दिणाई। इय तीए पडिवन्ने सहसा दारम्मि संपत्तो ।।४२४३।। सच्चय नामो खयरो कणगवई पेसिउं तओ दासि । बाहिं तं पुच्छावइ कज्जेणं केण पत्तोसि ॥४२४४॥ सो आह जहा केण वि दूराओ गयणमग्गओ एंती। दिट्ठा पियंकरी तो खेयरमियरं समुद्दिस्स ॥४२४५।। एमेव तेण जंपियमेवं जह पेच्छ गयणमग्गम्मि । केत्तिय दूराओ इमा पियंकरी चिट्ठए एंती ।।४२४६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376