Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 275
________________ २४२ सिरिवम्मकुमारचरिय दोन्नि वि तिउणपयाहिणपुव्वं नमिऊण सविणयं पुर। उड्ढा हवंति मउलियकरकमला विनवेइ तओ।।७७९०।। नरपुंगवो नरिंदो भयवं! भीयं भवाउ मं रक्ख । नियदिक्खा दाणेणं तुह सरणगओ अहं इन्हि ।।७७९१।। आह गुरू नरपुंगव ! जुत्तमिणं तुज्झ न उण पडिबंधो। अहमवि नियनाणेणं नाउं तुह दिक्खविहिसमय।।७७९२।। इह संपत्तो इन्हि अह तस्स उवट्ठियस्स विहिपुव्वं । नरपुंगवस्स दिक्खं देइ मुणिदो दयाजलही ।।७७९३।। सिक्खवइ य जइ किरियं इरियाभासाइयं समग्गं पि । सिरिवम्मनरिंदाइसु तो जहठाणं निविट्टेसु ।।७७९४।। नवजलहरनिग्घोसो आणंदणमुणिवरो कहइ धम्म । भो भो एगग्गमणा होउं भव्वा! निसामेह ।।७७९५।। एत्थ अणाइम्मि भवे चउगइगहणम्मि संसरंताण । जीवाणं नत्थि सुहं सुहाहिमाणं तु मतिमोहो ।।७७९६ ।। जं नरयतिरियनरसुरभेया चउरो गतीओ संसारे । तत्थ नरयम्मि दुक्खं ताव पसिद्ध चिय जणम्मि ।।७७९७।। जणसुइपरंपराए गुरुमुहनिसुयाओ आगमाओं वा । कस्स वि य विसंवाओ न विज्जए नारयदुहम्मि ।।७७९८।। जम्हा गुरुदुहपडियं जीवं दठूण इह जणो भणइ । एस वराओ दुक्खं नरयस्स व अणुहवइ तिव्वं ॥७७९९।। तिरियदुहं सक्खं चिय सीयायव-खुहपिवासरोयभवं । पट्ठीए खंधेण य गुरुभारुव्वहणजणियं च ।।७८०० ।। गलबंधवयणकवियाइखिवणगलपुच्छकन्नकप्पणयं । दहणंकणंकुसकसाकंधाआराइघायकयं ।।७८०१।। मणुयत्तणे वि पच्चक्खमेव दुक्खं सुतिक्खमिह सव्वं । दालिदुब्भगत्तणदासत्तणरोगसोगभवं ।।७८०२।। धणिणं पि लोभवसओ बहुविभवज्जणकिलेससंभूयं । दिन्नम्मि अलब्भंते दव्वे रिणिएहि सह होति ।।७८०३।। कलहो घोरो संतावकारओ जीवियंतजणओ य । चोराइविलुत्तधणे वणिउत्तविणासिए दब्वे ।।७८०४।। वणिजम्मि जायछेए आएण विणा वयम्मि जायते । समविहवजणविरोहे रन्ना विहिएऽवमाणम्मि ।।७८०५।। कम्मि वि गरुए दोसे खलेहिं उब्भाविए असब्भुए। पारद्धकज्जविग्घे इटुविओयम्मि संपत्ते ।।७८०६।। आणाएऽवट्टते दुपरियणे दुम्मुहे कलत्ते य । भाउम्मि सोयरे दव्वफेडए वंचगे मित्ते ।।७८०७।। दुलहे दइए महिलायणम्मि लद्धे वि अणणुरत्तम्मि । अणुरत्तम्मि वि जह तह पुणो रूसमाणम्मि ।।७८०८।। परपुरिसकयणुराए परपरिभुत्ते गए परेण समं । अहवा केणइ निववल्लहाइणा हढपरिग्गहिए ।।७८०९।। पुत्ते अजायमाणे जाए वि अणेगणत्थसंजणए । धूयावहूयणाइसु दुस्सीलयमायरंतेसु ॥७८१०।। इच्चाइकारणेहिं तेसिं जं होइ माणसं दुक्खं । तं जाणइ सव्वन्नू वोत्तुं पुण सो वि न समत्थो ।।७८११।। सारीरं पुण दुक्खं पढम चिय ताव गब्भमज्झम्मि । निरओवमे दुगंधे मुत्तपुरीसाणुलित्तम्मि ।।७८१२।। परमतमसंधयारे मंसवसारुहिरनिवहभरियम्मि । निवसंतस्स अहोमुहसंकोइयअंगुवंगस्स ।।७८१३।। भणियं च--सूतीहिं अग्गिवन्नाहिं संभिन्नस्स निरंतरं । जावइयं जायए दुक्खं गन्भे अट्ठगुणं तओ ।।७८१४।। जम्मसमए वि दुक्खं जोणीजताउ निप्फिडंतस्स । गम्भाओ अणेगगुणं संजायइ आरसंतस्स ।।७८१५।। भणियं च--जायमाणस्स जं दुक्खं मरमाणस्स जंतुणो । तेण दुक्खेण संतत्तो न सरइ जाइमप्पणो ।।७८१६।। जायस्स वि जंपिउमक्खमस्स आहारमहिलसंतस्स । रोयंतस्स दुहं चिय देहम्मि वि दूमियंतस्स ।।७८१७।। रिखणखमस्स किंचि वि अनाणओ जलियजलणमातीसु । हत्थाइपक्खिवंतस्स होइ दाहाइ गुरुदुक्खं ।।७८१८।। चंकमणखमस्स उ उच्चनीयठाणेसु चडणपडणेहिं । करचरणभंगसिरफुडणमातियं होति दुहमसमं ।।७८१९।। जर-खास-सिंभसीसच्छि-कन्न-पोट्टाइसूलवियणाहिं । अतिसार अरिसकंडूपित्तानिलखोभमातीहि ।।७८२०।। वुड्ढत्तणेण कमसो रूवविलासं समग्गअंगाण । साममिदियाण य सोयाईणं हरतेण ।।७८२१।। नीसासूसासवसे सचेट्ठियं कायमायरंतेण । जं उप्पज्जइ दुक्खं नराण तं सब्बपच्चक्खं ।।७८२२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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