Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 238
________________ सिरिमुनिसुव्वयजिणिदचरियं अड्ढाइज्जसहस्सा आणीया पवरहत्थिरूवाणं । तीसतुरंगसहस्सा वीससहस्सा रहाणं तु ।। ६५८३ ।। तेसि चेव सुदंसणपुरिसाण समीवओ मए निसुओ । तत्थागओ हयाणं वीससहस्साहिओ लक्खो ।। ६५८४।। अट्ठारहाण सहस्सा करिणो पुण जेत्तिया मए निसुया । सव्वे वि तेत्तिया चेव अम्ह इत्थम्मि आरूढा || रहतुरया पुर्ण नरसीहदंडवरणी सहा गया एत्थ । के बिहु तेसि संखं जाणिस्सह कं पि जइ तुम्हे ॥ ६५८६ ।। अह सिरिवम्मकुमारेण जोगरायस्स पेसियं झत्ति । हक्कारयं खणेणं संपत्तो सो वि तत्थ तओ ।। ६५८७ ।। पुट्ठो साहइ संखं तुरंगमाणं सहस्स पणसीई । पंचरहाण सहस्सा संपत्ता अप्पणो हत्थे ।। ६५८८ ।। तो कुमरेण भणियं रहसंखा ताव पुज्जए सयला । तुरयाण पण (पंच ? ) सहस्सा पुज्जंति न ते पुण पलाणा ।। के वि भविस्संति मया केवि पलाणा सहासवारेहिं । इच्चाइ कहं काउं विसज्जिया दो वि ते झत्ति ।। ६५९० ।। रणसहज गराया सेज्जाए संठिओ सयं कुमरो । सिरिवम्मो एगागी एवं चितइ नियमणम्मि ।। ६५९१ ।। निरुवमकलत्तलाहो संजाओ मज्झ सत्तुविजओ य । पहरिसलेसं पि परं दोन्नि विन इमे मह कुणति ।। ६५९२ ।। जह एयस्स सुदंसणकुमरस्स पराहवो समुप्पन्नो । चितिज्जंतो जणयइ परमविसायं मणे मज्झ ।। ६५९३ ।। धधी भवसरूवं जत्थ किलिस्संति जंतुओ एवं । विसएसु पसत्तमणा अणवेक्खियकज्जपरिणामा ।।६५९४ ।। नए संपन्ना जे विसया पुव्वपुन्नजोएण । ते वि निसेविज्जंता भयजणया होंति परलोए ।।६५९५ ।। जे उण नीइविरुद्धा चितिज्जंता वि ते इहभवे वि । अरइं जर्णेति गरुयं अयसं परपरिभवं तह य ।। ६५९६ । । इच्चाइ चिंतयंतस्स तस्स हक्कारयं समायायं । कुमरेण वीरपालेण पेसियं भोयणनिमित्तं ।। ६५९७ ।। अह सिरिम्मकुमारो संवहिउं परियणेण थेवेण । रणसीहजोगरायइएहिं पुरिसेहि य समेओ ।। ६५९८ ।। तुरयारुढो पत्तो गुलखेडपुरम्मि तत्थ एगम्मि । चेइयहरम्मि गंतुं पूएडं वंदिउं देवे ।। ६५९९।। हयमारुढो पगओ पासाए वीरपालकुमरस्स । कयसमुचियपडिवत्तीए परोप्परं दो वि ते कुमरा ॥ ६६००॥ जा मणिमयासणेसुं खणं निसन्ना कुणति आलावं । ता वीरपालकुमरो विन्नत्तो दूसलेणेवं ।।६६०१।। भोयणजायं पगुणं संजायं चिट्ठए समग्गं पि । किंतु परं थेवो च्चिय परिवारो एत्थ आणिओ ।।६६०२।। सिरिवम्मकुमारेणं तो तं पभणेइ सूरपालसुओ । सेसं पि हु परिवारं आणावह अप्पणो तुब्भे ।। ६६०३। अह सिरिवम्मो पभणइ अम्हेहिं समं सया वि जावइओ । भुंजइ परिवारो एस तेत्तिओ आगओ अत्थि ।। जो उण गिन्हइ निच्चं कणभत्तं सो न आणिओ एत्थ । तो भणइ वीरपालो दूसलदंडाहिवं एवं ।। ६६०५ ।। जह पुच्छेऊण तुमं पंचउलमिमस्स रायतणयस्स । कणहत्तयगाहीणं सव्वेसि देहि कणहत्तं ॥ ६६०६। आएसोत्ति भणित्ता कुमरं विन्नवइ वीरपालं सो । जह तुम्ह भाउजाया आणीया नेय कुमरेण ।। ६६०७।। तो भइ वीरपालो जं चिय कज्जं तमेव नाणीयं । अम्हाण भाउएणं जस्स कए एत्तिओ विहिओ ।। ६६०८ ।। अइगरुओ संरंभो देसंतरलंघणाइओ एसो । तो जाहि दूसल तुमं पच्छेउ भाउयं अम्ह ||६६०९॥ आह वसंतसिरि माया अम्हाण जाणए एवं । जइ पेक्खिस्सइ अन्नो एयं तो लग्ग्गिही चक्खू ।। ६६१०।। तो हसिऊणं जंपइ सिरिवम्मो जह मए इमा भणिया । अइआयरेण तह विहु न मन्नियं तीए आगमणं ।। तोह वीरपाल सिरिवम्मं कुणइ भोयणं तुब्भे । भुंजिस्सामि अहं पुण इहागयाए धुएं तीए ||६६१२।। तो पभणइ सिरिववम्मो रणसीहं दंडणायगं एवं | जह दूसलेण सद्धि गंतूण तुमं वसंतसिरिं ।। ६६१३॥ मज्झ वयणेण एवं पभणह जह वीरपाल पासाओ । नीहरिउ मिओ अम्हे न लहिस्सामो चिरेणावि ।। ६६१४।। Jain Education International २०५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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