Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 243
________________ सिरिवम्मकुमारचरियं तो भइ वसंतसिरी आनंदमयं दिणं समग्गं पि । अज्ज गयं मम पिययम ! बुड्डाए अमयकुंडे व्व ।। ६७४४ ।। जं नियजम्मप्पभिइं मए न दिट्ठे सुयं व अणुहूयं । तं पाणनाह ! जुगवं पि अज्ज मे सव्वमवि जायं ।। ६७४५ ।। उप्पज्जमाणनवनवपहरिसपूरिज्जमाणहियएहिं । होइज्जइ तं सुमरंतएहिं तीरइ न उण वोतुं ।। ६७४६।। किं जिणपडिमारूवं किं न्हवणविही किमच्चणविहाणं । किं सावयसमवाओ बेमि किमेक्क्कमिच्चाई । ६७४७ । किं वा जईण परिचत्तसव्वसंगाण गुणमहग्घाण । वन्निज्जर माहप्पं अच्चंतनिरीह चित्ताण || ६७४८।। उयरत्थे विन लोहो जेसि तवसुसियअंगुवंगाण । परिहरियविहसाणं निरवेक्खाणं सजीए वि ||६७४९।। जइ होंति अम्ह पेइयगुरुणो इह कहवि आगया एवं । तो ते सव्वस्से वि हु दिने न लहंति परिओसं ।। ६७५० ।। ते चितयंति एवं जइ जजमाणं पि विक्किउं कहवि । पारसउलाइठाणे अतिविउलो धिप्पए अत्थो ।। ६७५१ ।। ता इन्हि मज्झ मणे एसो च्चिय परिणओ धुवं धम्मो । देवो य इमो एए य सुगुरुणो तुम्ह जेभिमया ।। ६७५२ ।। जो नाह ! पहरिसो मे जाओ तर पाणवल्लहे लद्धे । सो जिणधम्मे लद्धे संजाओ समहिओ अज्ज || ६७५३ ।। तो जंपइ सिरिवम्मो मज्झ वि जो तुज्झ पाणिगहणम्मि । जाओ हरिसो सो अज्ज दुगुणिओ एरिसे जाए । ६७५४। इय जंपिऊण गुरुदेव धम्मगुणवन्नणं विसेसेण । कुणइ वसंतसिरीए पुरओ सुइरं इमो हिट्ठो ।। ६७५५ ।। जह पासियम् वत्थे निबिडो होऊण लग्गए रंगो । तह भावियाए तीसे धम्मुवएसो वि सो लग्गो ।। ६७५६ ।। काऊण धम्मगोट्ठि एवं सह पिययमाए खणमेगं । सिरिवम्मो निवकुमरो निद्दाहमणहवेऊण ।। ६७५७।। उट्ठेउं निसिविरमे किच्चं पाभाइयं विहेऊण । गिहिपडिमाए पूयं अट्ठपयारं करेऊण ।। ६७५८।। जिणमंदिरेसु जा किर गमिस्सए ताव दारवालेण । आगंतु विन्नत्तो एवं सिरिवम्मवरकुमरो ।। ६७५९। वासवउराउ वासवदत्तेण नरेसरेण पट्टविओ । चिट्ठइ पहाणपुरिसो दारे नामेण वरदत्तो ।। ६७६०।। कुमरेण समाइट्ठी पडिहारो झत्ति तं पवेसेइ । सो वि कयप्पणिवाओ कुमरेणालिंगिओ तत्तो ।। ६७६१ ।। तस्स गुरुसंभ्रमेणं दावियमुचियासणं हमो तम्मि । उवविट्ठो परिपुट्ठो कुमरेणं कहिउमाढत्तो ।। ६७६२ ।। जह गुलखेडपुराओ गएहिं वणिएहि वासवउरम्मि । रन्नो वासवदत्तस्स साहियं जह वसंतसिरी ।। ६७६३ ।। वज्जाउहदेवीए पुरम्मि पत्ता महाबलनिवस्स । अंगरुहेण सुदंसणनामेण तओ समागंतुं ।। ६७६४।। पडिखलिया वच्चंती चंदउरीए पुरीए तो एवं । नाऊण सूरपालेण पत्थिवेणं नियंग हो || ६७६५।। नामेण वीरपालो पभूयबलसंजुओ सहायत्ते । दूसलसेणावइणो दुइज्जओ पेसिओ तत्थ ।। ६७६६।। जेण सुदंसणकुमरं वसंतसिरिकन्नयाए लग्गतं । दो वि निवारेंति इमे तह चंदउरीए नयरीए ।। ६७६७।। सिरिवम्मकुमारो वि हुं वज्जाउहदेविपुरबहिं पत्तो । करि तुरिय - जोहपउरं सेनं घेत्तूण संज्ञाए ।।६७६८।। अम्हे वि तम्मि समए कयसंवाहा तओ विणिक्खता । सत्थवसेणं मग्गे बूढा रयणि असे पि ।। ६७६९।। पच्छाय तत्थ जायं किं पि न तं जाणिमो तओ एवं । सोउं वासवदत्तेण राइणा चितियं एवं ।। ६७७० ।। चिट्ठेति मए पुरिसा वसंत सिरिकन्नया सह बहुया । पट्ठविया एक्को वि हु तेसु न तीए मम समीवे ।। ६७७१।। एवंविवत्ता कणत्थं पेसिओ तओ एयं । सच्चं उयाहु मोसं सम्मं जाणिज्जए नेय ।।६७७२।। इय चितिऊण दियहं तं चेव विलंबिऊण रयणीए । हक्कारेऊण अहं इय भणिउं एत्थ पट्टविओ | ६७७३ ।। जइ वणियाण इमाणं वयणं सच्च कहंचि तो तुमए । भणियव्वो सिरिवम्मो जहा इमो इह समागंतुं ।।६७७४।। अम्ह समीवे परिणइ वसंतसिरिकन्नयं अह कहंचि । तत्थेव य परिणीया तेण इमा होइ तह वि तए ।। ६७७५ ।। २१० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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