Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 248
________________ सिरिमुनिसुव्वयजिणिदचरियं २१५ जंपंतस्स पसाओ कीरइ जुगवं पि एत्तिओ सो वि । ता सव्वहा वि एसो केवलगुणपुंजनिम्मविओ ॥६९०५।। जो विहियविप्पियाण वि एवं सुयणत्तणं पयासेइ । सो अणवराहलोए उवयारी चेव सयकालं ॥६९०६।। जो एयस्स मणम्मि वि असुंदरं को वि चितए मूढो । नियअंगे च्चिय निवडइ तं तस्स न एत्थ संदेहो।।६९०७॥ ते एवं चितंता विसज्जिए अवसरम्मि सिरिवम्मं । नमिऊण उठ्ठिया दंसियम्मि पगया नियावासे ।।६९०८॥ उठेउमवसराओ सिरिवम्मो तित्थनाहपडिमाए । भत्तीए काऊणं पूयं तह वंदणं तत्तो ।।६९०९।। गोट्ठीए गमिऊणं रयणि थेवं पि सह सुहिजणेहिं । वासहरे सेज्जाए सयणं काउं पभायम्मि ।।६९१०॥ कयआवस्सयकिच्चो पूएउं वंदिउं च जिणपडिमं । कयसिंगारोवसरे उवविसिउं तक्खणे चेव ।।६९११।। कुमरसुदंसणजोग्गं पेसइ पल्लाणियं पवरकरिणि । तत्थारुहिउं एसो पत्तो सिरिवम्मपासम्मि ॥६९१२।। सिरिवम्मो तो पुच्छइ रणसीहं जो मए तुहाएसो । संज्झाए आसि दिन्नो तए कओ सो किमज्ज वि नो॥६९१३।। तो रणसीहो जंपइ को वि कओ को वि कीरए लग्गो। किंतु सयं तुम्हेहि दिट्ठा तुरया भविस्संति ॥६९१४॥ अप्पेयव्वा एयस्स जंपए तो कुमारसिरिवम्मो । जिणमंदिरेसु गंतुं समागया इय करिस्सामो ॥६९१५।। एत्थंतरम्मि पत्तो सिरिहरिसो तत्थ सो वि कुमरेण । सिरिवम्मेणं पुढो गंतूण सुदंसणस्स तुमं ।।६९१६।। आवासे वि हु मिलिओ कि न तओ जंपए सिरीहरिसो । आवासगमणवज्ज पि सिद्धममेव मे कज्ज ॥६९१७।। एयस्स समीवाओ पलाइउं जो जणो गओ तत्थ । दंतउरे निवपासे कहतओ सो मए निसुओ ॥६९१८।। सव्वमिमस्स सरूवं एएण वि मम सरूवमवबुद्धं । जेणागओम्हि कज्जेण एत्थ तं इयरलोयाओ ॥६९१९।। दसणकज्जं तु परोप्परं पि एयस्स मम य संसिद्धं । एत्थेव तुह समीवागयस्स कल्ले य अज्ज तहा ॥६९२०।। तव्वयणं सोऊणं सिरिवम्मो चिंतए अहो दूरं। चित्तं सुदंसणाओ महाबलनिवस्स उत्तिन्नं ।।६९२१।। तेणेस सिरीहरिसो अहिगिच्च सुदंसणं वयइ एवं । अइनिरवेक्खं जम्हा जाणइ नियसामिणो चित्तं ।।६९२२।। कवडं ति न उण एवं संभाविज्जइ सुदंसणो जेण । दुस्सीलत्तेण जए विक्खाओ आसि पुव्वं पि ॥६९२३।। जह संपयं पयंपइ सुदंसणो तह पुरा वि निव्वडिही । जइ एसो तो होही जणओ एयम्मि पीयमणो ॥६९२४।। सिरिहरिसो आह तओ मए समं जो गमिस्सइ दुइज्जो। दंतउरम्मि निरूवह तं कं पि नियं महापुरिसं ।।६९२५।। पभणइ तो सिरिवम्भो अहं गमिस्सामि वासवउरम्मि । जइया तइया तुब्भे दंतउरे पट्टविस्सामि ॥६९२६।। किं होसि ऊसुयमणो इण्हि चिय ताव तो सिरीहरिसो । सपणाम बेइ जहा तुम्हाएसो पमाणं मे ॥६९२७।। तो सिरिवम्मो तत्तो उठेऊणं करेणुमारुहिउं । वच्चइ तेहिं समं चिय सव्वेसु जिणिदभवणेसु ॥६९२८।। निव्वत्तियण्हवणाई आगंतूणं तओ नियावासे । सेसं विसज्जिऊणं रणसीहं धारए एक्कं ॥६९२९।। जे पगहिया सुदंसणकडयाओ ते तुरंगमे सव्वे । तत्थ समाणावेउं पलोइऊणं सयं निउणं ॥६९३०।। एक्कक्केणं तत्तो चउरो निव्वाडए हयसहस्से । रणसीहो तेसु तओ निव्वाडेउं हयसहस्सं ॥६९३१।। सिरिवम्मस्स समीवे आगंतुं विन्नवेइ जह एसो । तुरयसहस्सो तरुणो रययं बलवं गुरुपमाणो ॥६९३२।। तो एए धरिऊणं अन्ने दिज्जंति एसि ठाणम्मि । सिरिवम्मो बेइ तओ लक्खणहीणा इमे तुरया ॥६९३३।। लक्खणमट्ठपयारं सत्थेसु कहिज्जए तुरंगाणं । आवत्तवन्नसत्तच्छायागंधो गई य सरो ॥६९३४।। अट्ठमयं सारीरं तत्थावत्तो हवेइ अट्ठविहो । आवत्तो तह सुत्तीसंघाओ मुगुलमवलीढं ॥६९३५।। सयवाइपाउयद्धं अट्ठमिया पाउया विणिद्दिट्ठा । आवत्ताणं संखा तेवीसहियं सयं होति ॥६९३६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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