Book Title: Munisuvratasvamicarita
Author(s): Chandrasuri, Rupendrakumar Pagariya, Yajneshwar S Shastri, R S Betai
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 225
________________ सिरिवम्मकुमारचरियं संपत्तकुसुमसोहो संजाओ संपयं पुण जहा सो । फलइ महायस! तह कुणसु झत्ति पसिऊण अम्हुवरि ।। ६१६१।। अह सिरिवम्मो ऊसुहियओ वि तमाहवणसिरिं एवं । तुह सामिणिदूएहिं चंदउरिगएहि जम्मि खणे ।। ६१६२।। नरपुंगवनिवपुरओ कहिज्जमाणं इमं मए निसुयं । जह सिरिवम्मकुमारे कयाणुराया वसंतसिरी ।। ६१६३।। ती पहे निरुद्धा सुदंसणेणं महाबलसुण । तप्पभिइ मए नायं जइ कह वि विहंगमो होउं ।। ६१६४।। उप्पइउं नहमग्गे गंतु परिणेमि तं वसंतसिरिं । अह दिन्नाए सोहं जणएणं झत्ति इह पत्तो ।। ६१६५।। तायनिरूवियन्नस्स मज्झ सो थेवमेव गहिऊण । सारं सेन्नं सेसं सिबिरेण समं कयं एतं ।। ६१६६ ।। तो हं इमम्मि कज्जे सयमेव समूसुओ अइसएण । किंतु जणयाण पढमो पुत्तो हं पढमपरिणयणं ।। ६१६७।। मज्झ इमं तेसिं असमक्खं कह णु जुज्झए काउं । ता भणह तं जहा सा वि सहइ जा जामि चंदउरि ।। ६१६८।। तो भणइ वर्णासिरी सिरिवम्मकुमारं जहा तुमं सुहिओ । न मुणसि परस्स पीडं तो एवं वयसि लीलाए ।। ६१६९॥ साहि गुणसवणुब्भवाणुराएण । पकुवियमयणमहाभडसरेहिं ताडिज्जए निच्चं ।। ६१७० ।। सा पीडं अतरंती सहिउं मन्नइ खणं पि वाससमं । तेण सयं पि पयट्टा कुमार ! तुह पविसिउं सरणे ।। ६१७१ ।। जं पुणपणसि एवं नियपियराणं करेमि न परोक्खे । परिणयणं पि न जुत्तं वोत्तु ं तुह तं पि निवतणय ! ।। ६१७२।। जम्हा तुह पियरेहिं वासवदत्ताउ पत्थिउं एसा । न हु आणीया तो कह सयं विवाहे वि तुह दोसो ।। ६१७३ । किं चि सयं परिणयणे तुह दूसणमिणमहं हरिस्सामि । अपरिणयणम्मि दोसं देवं पि न तुज्झ अवहरिही । । ६१७४।। सिरिवम्मो आह कहं तो पभणइ वर्णासिरी जहा कुमर । न विही वि तं वि वन्नं जीवाविस्सइ वसंतसिरि।। ६१७५ ।। सोऊण वणसिरीए वयणमिणं नियमणम्मि सिरिवम्मो । चिंता अच्चावत्था मयणेण कया वसंतसिरी ।। ६१७६।। नूणं तेण स कोवं सोवालंभं च पियसही तीसे । एसा एवं जंपड़ सदुक्खहियया निरुयारं ।। ६१७७ ।। ता जइ पत्थणभंगे सुयम्मि सा जीवियं नियं चयइ । तो होइ गुरु अणत्थो एसो विहिओ मए चेव ।।६१७८ ।। जावज्जीवं पि तओ पच्छायावो न फिट्टइ ममेसो । हवइ य जयम्मि सयले अयसो गुरुयणपकोवो य ।। ६१७९।। ता पत्तालमिन्हि एयं चिय नूण मज्झ करणिज्जं । जं परिणिज्जइ एसा अविलंब चितिउं एवं ।। ६१८०।। सो आह वणसिरिं जह झत्ति तुमं संपयं पि गंतॄण । पवणं विवाहजोग्गं कारेहि अहं जहां एमि ।। ६१८१ । ध्रुवलग्गम्मि करिस्सं परिणयणं तुज्झ सामिणीए अहं । इय सा लद्धा एसा कुमारपासाउ उट्ठेउं ।।६१८२।। गंतूण वसंतसिरीए साह एसा वि वड्डपुरिसाणं । कहिऊणं कारावर पडणं सव्वं विवाहकए ।। ६१८३।। सिरिवम्मो वि कुमारो भणिए समयम्मि तत्थ गंतूण । संखेवेणं परिणेइ रायध्यं वसंतसिरिं ।। ६१८४।। रइसुहमणुहविऊणं निद्धं काऊण रयणिविरमम्मि । कयपाभाइयकिच्चो उवविट्ठो जाव चिट्ठेइ ।।६१८५।। ताव सुदंसणकडाउ पुरिसा समागया दो वि । तं पणमिऊण साहति अग्गओ तस्स ते एवं ।। ६१८६ ॥ अम्हे कुमार तुम्हा सेणं पढममेत्थ आगंतु । कहिऊण वसंतसिरीए अग्गओ तुम्ह आएसं ॥। ६१८७ ।। तं अणुजाणावेडं गया सुदंसणकुमारकडयम्मि । काऊण तेण सह दंसणं तओ भणियम हेहिं ।। ६१८८ ।। जह अम्हे पट्ठविया नरपु ंगवनिवइणा तुह समीवे । तेण भणावियमेवं जह अम्ह महाबलो राया ।। ६१८९।। मित्तं तस्संगहो तुमं तु सिरिवम्मकुमरठाणम्मि । अम्हेहिं जहा एसो सिवखवियव्वो तह तुमं पि ।। ६१९०॥ जह सिरिवम्मविभूईए होइ अम्हं मणम्मि परिओसो । तह तुज्झ वि विभवेणं जायइ अम्हाणमाणंदो ।।६१९१।। तो जइनियपीईए पडिवज्जइ कह वि तं वसंतसिरिं । तो परिणेहि तुममिमं असंगयं किं पि नो एयं ।। ६१९२।। वित्त व इमं तुह गिन्हंतस्स किं पि न भणामो । एवं पि कह वि एसा तुह भज्जा होइ तो होउ ।। ६१९३।। १९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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