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(ल०) एवं हि कुर्वता आराधितं वचनं, बहुमतो लोकनाथः परित्यक्ता लोकसंज्ञा, अंगीकृतं लोकोत्तरयानं, समासेविता धर्माचारितेति । अतोऽन्यथा विपर्ययः । इत्यालोचनीयमेतदतिसूक्ष्माभोगेन । न हि वचनोक्तमेव पन्थानमुल्लंघ्यापरो हिताप्त्युपायः । न चानुभवाभावे पुरुषमात्र प्रवृत्तेस्तथेष्टफलसिद्धिः ।
(पं०) 'लोकसंज्ञे'ति = गतानुगातिलक्षणा लोकहेरि: । 'लोकोत्तरयानमि'ति = लोकोत्तरा प्रवृत्तिः । पुरुषमात्रप्रवृत्तिरपि हिताप्त्युपायः स्यान्न वचनोक्त एव पन्थाः, इत्याशङ्क्याह- 'नचानुभवे'- त्यादि । अयमभिप्रायः प्राक् स्वयमेव दृष्टफले कृष्यादौ तदुपायपूर्वकम्, आप्तोपदिष्टोपायपूर्वक चादृष्टफले निधानखननादौ कर्म्मणि, प्रवृत्तस्य स्वाभिलषितफलसिद्धिरवश्यं भवति, नान्यथा । अतोऽतीन्द्रियफले चैत्यवन्दने फलं प्रति स्वानुभवाभावे पुरुषमात्रप्रवृत्त्याश्रयणान्न विविक्षितफलसिद्धिः, व्यभिचारसम्भवात् । अतः शास्त्रोपदेशात् तत्र प्रवर्तितव्यमिति ।
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किया । लोकसंज्ञा अर्थात् भेडोंके समूहकी तरह आगे जानेवालेके पीछे पीछे किया जाता गमनस्वरूप गतानुगति, जो कि 'लोकहेरि' है, उसका परित्याग किया । लोकोत्तर प्रवृत्ति का आदर किया। और वास्तविक धर्माचारिताका सेवन किया। (धर्म जिनाज्ञासे अविरुद्ध ही होता है अतः आज्ञानुसारितामें धर्माचारिपन सुरक्षित रहता है) इससे विपरीत अनधिकारीको सूत्रपाठादि देनेमें तो विपर्यास होता है अर्थात् आज्ञाविराधन, भगवद्-अपमान, लोकहेरिसेवन, लोकोत्तर प्रवृत्तिका भंग, एवं धर्माचारोल्लंघन होता है । यह वस्तु सूक्ष्म चिंतन से विचारणीय है ।
प्र० - जिनाज्ञा के पालनपर इतना आग्रह क्यों ?
उ०- कारण यह है कि आज्ञासे प्रतिपादित मार्गको छोडकर दूसरा कोई हितप्राप्तिका उपाय नहीं है। हितप्राप्तिका उपाय पुरुषमात्रकी प्रवृत्ति भी हो, वचनोक्त मार्ग ही क्यों ?
प्र०
उ०- समाधान यह है कि अनुभवके विना पुरुषमात्रकी प्रवृत्ति होने द्वारा ऐसी इष्ट फलकी सिद्धि नहीं होती। इस कथन का अभिप्राय यह है कि पहले कृषि आदिका फल प्रत्यक्ष देखा है, तभी उसके उपाय लगाकर कृषि आदिमें प्रवृत्ति होती है, और ऐसी प्रवृत्ति करनेवाले पुरुषको अपने इच्छित फलकी सिद्धि अवश्य होती है। एवं जहाँ निधान याने गुप्तकोष खुदना वगैरेहमें प्रत्यक्ष फल नहीं दिखता, अर्थात् यह पता नहीं कि यहाँ खोदनेसे निधान अवश्य मिलेगा, वहाँ भी यदि आप्त (विश्वसनीय) पुरुषका उपदेश मिल जाए तो उनके उपदेश अनुसार खुदाई आदिकी क्रियामें प्रवृत्त होने से इष्ट फलकी सिद्धि अवश्य होती है । (कृषि आदिकी अपेक्षा) अंतर इतना है कि ऐसे अदृश्य फलवाले कर्ममें स्वानुभव नहीं होने से आप्तजनके उपदेशानुसार ही चलना पडता है, तभी फलप्राप्ति होती है; अन्यथा फलप्राप्ति नहीं । यों ही अदृश्य (अतीन्द्रिय) फल देनेवाले चैत्यवन्दनमें स्वानुभव नहीं होने पर, अज्ञ पुरुषमात्रकी प्रवृत्तिके आधारपर चलनेसे वास्तविक इष्टफल सिद्धि नहीं हो सकता; क्योंकि उसमें व्यभिचार संभावित है। अर्थात् विना अनुभव यथेच्छ प्रवृत्ति करनेमें निष्फलता आने पर, उपाय रूपसे कल्पित अनुष्ठान फलशून्य हुआ । इसलिए ऐसे स्थानमें अतीन्द्रियार्थदर्शीके शास्त्रके उपदेशानुसार ही प्रवृत्ति करनी चाहिए ।
स्वकल्पित प्रवृत्तिमें और भी दूषण हैं । चैत्यवन्दनके अनुष्ठानमें स्वेच्छासे प्रवृत्ति करने पर उस महाविधिकी लघुता होती है। इससे पूज्यकी पूजास्वरूप शिष्टाचार का परित्याग होता है, अर्थात् 'चैत्यवन्दनविधान मूल उपदेशक पूंज्य पुरुषने चैत्यवन्दन सम्बन्धमें फरमाए हुए सर्व आदेश शिरोमान्य करना, -' यह जो पूज्यपुरुषकी सच्ची पूजा है, और वही जो शिष्टपुरुषोंका आचार है, उसका लोप होता है । फलतः दूसरे उपायसे भी संभवित ऐसे
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