Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 348
________________ (ल० - ) 'नन्वेवं सर्वज्ञ एवास्य वक्ता सदा, नान्यः, (अन्यथा) तदसाधुत्वप्रसङ्गाद् इति सोऽवचनपूर्वक एव कश्चिन्नीतितः ?' ननु 'बीजाङ्कुरवत्' - इत्यनेन प्रत्युक्तं; परिभावनीयं तु यत्नतः । (पं० -) 'ननु' इति पराक्षमायाम्, ‘एवमिति पौरुषेयत्वे, 'सर्वज्ञ एव', 'अस्य' = वचनस्य, 'वक्ता' । सदा' = सर्वकालं, 'न', 'अन्यः' = तद्व्यतिरिक्तः । कुत इत्याह ( अन्यथा ) तदसाधुत्वप्रसङ्गात्', तस्य = वचनस्य, असाधुत्वप्रसङ्गाद् = अप्रामाण्यप्राप्तेः, वक्तृप्रामाण्याद्धि वचनप्रामाण्यम्, 'इति' = अस्माद्धेतोः, 'सः' सर्वज्ञः, 'अवचनपूर्वक एव कश्चित्' चिरतरकालातीतो, 'नीतितः' = अन्यथाऽपौरुषेयं वचनं स्यादिति नीतिमाश्रित्य, 'अभ्युपगन्तव्य' इति गम्यते । अत्रोत्तरं, 'ननु' = वितर्कय, 'बीजाङ्कुरवदेतदित्यनेन' ग्रन्थेन, 'प्रत्युक्तं' = निराकृतमेतत् 'परिभावनीयं तु यत्नतः'; तत्र सम्यक्परिभाविते पुनरित्थमुपन्यासायोगात् । भी नहीं हुआ, और जीवन्मोक्ष हुआ, यह तो अपने ही आगम से विरुद्ध हुआ। फलतः अनादिशुद्ध ईश्वरवाद की आपत्ति अर्थात् अन्य मत वालों से मान्य अनादिशुद्ध सदाशिव आदि की तरह कोइ अनादिशुद्ध अरिहंत होने का मत मानने की आपत्ति खड़ी होगी। यह तो आप लोगों को स्वीकार्य नहीं, इसलिए अरिहंतमात्र को अनादि अपौरुषेय वचन पूर्वक मानना दुर्निवार है।'' यह जैनमत पर आक्षेप का कथन समाप्त होता है। जैनों के द्वारा आक्षेप का परिहार : अब परपक्ष के आक्षेप का परिहार करने के लिए उत्तर दिया जाता है; दूसरों का यह कथन ठीक नहीं है क्यों कि वचन का आदि भाव न होने पर भी, वचन के प्रवर्तक तालु आदि की क्रिया अगर न हो, तब वचन बन ही नहीं सकता। वचन की व्युत्पत्ति यह है कि जो बोला जाए वह वचन, - यह पहले कह चुके हैं। फलतः वचन अनादि अपौरुषेय सिद्ध नहीं हो सकता । पूर्वपक्ष में किये गये दूसरे आरोप का भी निवारण यह है कि आरोपित किया गया अवचनपूर्वकत्व किसी अरिहंत भगवान में हम मानते ही नहीं है, क्यों कि जब हमारा सिद्धान्त है कि 'अरहया तप्पुब्विया' - अरिहंतमात्र वचनपूर्वक ही होते है, तब यह प्राप्त होता है कि कोई भी अरिहंत अनादि से अरिहंत नहीं होते हैं, वचनपूर्वकत्व का अवचनपूर्वकत्व के साथ एवं अवचनपूर्वकत्व से फलित अनादित्व के साथ विरोध है। वचनपूर्वकत्व से उन दोनों का निषेध हो जाता है। प्र० - ठीक है अरिहंतमात्र वचनपूर्वक हो, तब तो इसका अर्थ यह हुआ कि अरिहंत-प्रयोजक वचन अनादि से चला आता है फलतः वह अपौरुषेय क्यों नही सिद्ध हुआ? उ० - रहस्य समझिए, - बीजाङ्कुर न्याय से वचन और अरिहंत का कार्यकारण-भाव है; अर्थात् जिस प्रकार बीज से अङ्कुर, उस अङ्कुर से बीज, उस बीज से अङ्कुर......... ऐसी कारण-कार्य-धारा अनादि काल से चली आती है, इस प्रकार वचन से अरिहंत, उस अरिहंत से वचन की प्रवृत्ति, उस वचन से अरिहंत, ......... यह धारा अनादि काल से चली आती है, यहां धारा बतलाने में पहले वचन लिया इसका यह मतलब नहीं कि वह वचन अनादि का था; क्यों वह भी उसके पूर्व किसी अरिहंत से प्रवर्तमान हुआ था, और वह अरिहंत भी किसी पूर्व वचन से हुए थे । मतलब ऐसा कोइ काल नहीं था कि जब वचन नहीं था, अनादि काल से उसकी परंपरा चली आती है। इस प्रकार बीजाङ्कुर के दृष्टान्त से वचन प्रवाह याने परंपरा की अपेक्षा से अनादि सिद्ध होते हुए भी, जैसे सर्वज्ञ पहले नहीं ऐसा पुरुष ही सर्वज्ञ होता है अर्थात् नया सर्वज्ञ बनता है, वैसे समस्त लौकिक लोकोत्तर प्रकार वाले वचा वक्ता की तालु आदि की क्रिया के प्रयत्न से नये ही उत्पन्न होने वाले होते हैं। अत: सिद्ध होता है कि कानपौरुषय ही हो सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410