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(ल०) - (७) बुद्धबोधितसिद्धा बुद्धा आचार्यास्तैर्बोधिताः सन्तो ये सिद्धास्ते इह गृह्यन्ते । (८) एते च सर्वेऽपि स्त्रीलिङ्गसिद्धाः केचित्, (९) केचित्पुंलिङ्गसिद्धाः, (१०) केचिन्नपुंसकलिङ्गसिद्धाः। आह, - 'तीर्थकरा अपि स्त्रीलिङ्गसिद्धा भवन्ति ?' । भवन्तीत्याह, यत उक्तं सिद्धप्राभृते, - 'सव्वत्थोवा तित्थयरिसिद्धा, तित्थयरितित्थे णोतित्थयरसिद्धा असंखेज्जगुणा, तित्थयरितित्थे णोतित्थयरिसिद्धा असंखेज्जगुणाओ'इति । (तीर्थकराः) न नपुंसकलिङ्गसिद्धाः । प्रत्येकबुद्धास्तु पुंल्लिङ्गा एव । (११) स्वलिङ्गसिद्धा द्रव्यलिङ्गं प्रति रजोहरणगोच्छगधारिणः, (१२) अन्यलिङ्गसिद्धाः परिव्राजकादिलिङ्गसिद्धाः, (१३) गृहिलिङ्गसिद्धा मरु देवीप्रभृतयः । (१४) 'एगसिद्धा' इति एकस्मिन् समये एक एव सिद्धः, (१५) 'अणेगसिद्धा' इति एकस्मिन् समये यावदष्टशतं सिद्धम्; यत उक्तम् - 'बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोधव्वा । चुलसीई छण्णई दुरहिय अट्ठत्तरसयं च ॥'
____ अत्राह चोदकः 'ननु सर्व एवैते भेदास्तीर्थसिद्ध-अतीर्थसिद्ध-भेदद्वयान्त विनः, तथाहि-तीर्थसिद्धा एव तीर्थकरसिद्धाः, अतीर्थकरसिद्धा अपि तीर्थसिद्धा वा स्युरतीर्थसिद्धा वा, इत्येवं शेषेष्वपि भावनीयमित्यतः किमेभिरिति ?' । अत्रोच्यते ,-अन्तर्भावे सत्यपि पूर्वभेदद्वयादेवोत्तरोत्तरभेदाप्रतिपत्तेरज्ञातज्ञापनार्थं भेदाभिधानमित्यदोषः ।।
___(पं० -) 'न नपुंसकलिङ्ग'इति, नपुंसकलिंगे तीर्थकरसिद्धा न भवन्तीति योज्यम् । है। दोनों के बीच के अन्तर का विवेचन इतना यहां काफी है, विस्तार से क्या ? । अब आगे बुद्धबोधितसिद्ध आदि का विचार प्रस्तुत किया जाता है।
.(७) बुद्ध बोधितसिद्ध वे होते हैं जो बुद्ध याने आचार्य के द्वारा बोध प्राप्त कराने पर सिद्ध होते हैं, वे यहां ग्राह्य हैं। • (८ - १०) इन सभी में से कोई तो स्त्रीलिङ्गसिद्ध - याने स्त्री होकर सिद्ध हुए, कोई पुंल्लिङ्गसिद्ध - पुरुष होकर सिद्ध हुए, और कोई नपुंसकलिङ्ग सिद्ध होते हैं। __प्र० - तब क्या तीर्थंकर भी कोई स्त्रीलिङ्ग सिद्ध होते हैं ?
उ० - हां, होते हैं, क्यों कि 'सिद्धप्राभृत' शास्त्र में कहा गया है कि सब से अल्प स्त्रीतीर्थंकरसिद्ध होते हैं, इनसे असंख्यातगुण पुरुष-अतीर्थकरसिद्ध स्त्रीतीर्थंकर के तीर्थं में होते हैं, इनसे असंख्यातगुण स्त्री - अतीर्थंकरसिद्ध स्त्रीतीर्थंकर के तीर्थ में होते हैं। कोई तीर्थंकर नपुंसकलिङ्गसिद्ध नहीं होते हैं और प्रत्येकबुद्धसिद्ध तो मात्र पुरुष ही होते हैं, न स्त्री, या न नपुंसक।
•(११) स्वलिङ्गसिद्ध वे हैं जो द्रव्यलिङ्ग रूप में रजोहरण-पात्रगोच्छक को धारण कर सिद्ध होते हैं। • (१२) अन्यलिङ्गसिद्ध वे हैं जो परिव्राजकादि जैनेतर लिङ्ग में सिद्ध होते हैं। •(१३) गृहलिङ्गसिद्ध मरुदेवी - प्रमुख गृहस्थलिङ्ग में सिद्ध हुए कहे जाते हैं। .(१४) एकसिद्ध अर्थात् एक 'समय' नाम के अति सूक्ष्म काल में जो एक ही जीव सिद्ध हुआ। .(१५) अनेकसिद्ध अर्थात् जो एक 'समय' में अनेक जीव सिद्ध हुए, यावत् अधिक से अधिक १०८ सिद्ध हुए; क्योंकि कहा है, -
'बत्तीसा, अडयाला, सट्टी, बावत्तरी य बोधव्वा । चुलसीई, छण्णवई, दुरहिय अठ्ठत्तरसयं च ॥१॥
- लगातार आठ समय तक सिद्ध होते रहे तो प्रत्येक समय में उत्कृष्टतः ३२-३२ सिद्ध हो सकते हैं। उस प्रकार सात समय तक उत्कृष्टतः ४८ - ४८, छ: समय तक ६० - ६०, पांच समय तक ७२ - ७२, चार
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