Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 380
________________ (ल० - स्तुतिः किमर्थवादो, विधिवादो वा ?-) आह, - "किमेष स्तुत्यर्थवादो यथा - 'एकया पूर्णाहुत्या (प्र० ... पूर्णयाऽऽहुत्या) सर्वान् कामानवाप्नोती 'ति ? उत विधिवाद एव यथा - ही होती है ऐसा नहीं, क्यों कि किसी किसी स्त्री में उनका सद्भाव शास्त्र में प्रतिपादित है। • नौ गुणस्थानकों के योग्य होने पर भी स्त्री अगर लब्धियों के योग्य नहीं तब प्रस्तुत कैवल्यप्रापक उत्तमधर्मविधि की उत्पादक नहीं बन सकेगी, ऐसी शङ्का हो सकती है, अतः वैसी अयोग्यता का निषेध करने के लिए कहते हैं कि वह लब्धि के अयोग्य नहीं है; क्यों कि 'आमर्ष औषधि' (स्पर्श मात्र से रोग हटाने वाली) लब्धि आदि उसमें होती है; वर्तमान काल में भी कालानुसार विशिष्ट शक्ति किसी किसी स्त्री में दिखाई पड़ती है। स्त्रियों को शुक्लध्यानसाधक पूर्वो का ज्ञान कहां से? : प्र० - स्त्रियों को समस्त द्वादशाङ्ग का निषेध क्यों ? अगर निषेध है तब पूर्वो का ज्ञान न होने से केवलज्ञान-साधक शुक्लध्यान कैसे होगा? उ० - स्त्रियों का शरीर ही ऐसा है इसलिए उसके द्वादशांग आगमों का अध्ययन निषिद्ध किया गया है ता कि कोई दोषापत्ति न हो। फिर भी यह तो शब्द रूप से ज्ञान करने का निषेध हुआ, किन्तु अर्थ रूप से नहीं; और वस्तुस्थिति ऐसी है कि स्त्रीवेदादि मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से क्षपक श्रेणि का विशिष्ट परिणाम होने पर संजात श्रुतावरण के विशिष्ट क्षयोपशमवश 'भावतो भावः अविरुद्धः' - अर्थात् शुक्लध्यान के भाव से ज्ञानावरणक्षयोपशमभाव याने द्वादशांग के अर्थ का बोधात्मक उपयोग प्रगट हो जाता है ; तब अर्थोपयोग रूप से द्वादशांग की सत्ता आ ही जाती है। यह अविरुद्ध है याने दोषावह नहीं है, क्यों कि पूर्वो के ज्ञाता और पुरुषों की तरह उनके मोहनीय का सर्वथा क्षय हो गया है। यहां तात्पर्य यह है कि स्त्रियों को भी प्रस्तुत युक्ति से केवलज्ञान की प्राप्ति होना भी उचित है, और केवलज्ञान शुक्लध्यान से होता है; क्यों कि यह शास्त्र वचन इसमें प्रमाण है कि 'ध्यानान्तरिका में वर्तमान जीव को केवलज्ञान उत्पन्न होता है; शुक्लध्यान के पहले दो प्रकार - 'पृथक्त्व - वितर्क सविचार, एकत्ववितर्क अविचार' के अन्त में, और पिछले दो प्रकार - 'सूक्ष्म क्रिया - अनिवृति, व्युच्छिन क्रियाप्रतिपाति' - के प्रारम्भ होने पूर्व, होने वाली अवस्था को ध्यानान्तरिका कहते हैं। अब देखिए कि बारहवे अङ्ग 'दृष्टिवाद' के अन्तर्गत 'पूर्व' नाम के श्रुत का ज्ञान अगर न हो तो शुक्लध्यान के पहले दो प्रकार उत्पन्न नहीं हो सकते । तत्त्वार्थमहाशास्त्र में कहा है 'आद्ये पूर्वविदः' = 'शुक्लध्यान के आद्य दो प्रकार पूर्व के ज्ञाता को हो सकते हैं। और शास्त्र यह भी कहता है कि स्त्रियों को दृष्टिवाद आगम का अध्ययन नहीं । और स्त्रियों को केवलज्ञान और इसका साधनभूत शुक्ल ध्यान तो होता है; इसलिए मानना दुर्वार है कि शब्द रूप से उन्हें अध्ययन न होने पर भी धर्मध्यान के आधार पर क्षपक श्रेणि के विशिष्ट परिणाम तक वह पहुँचती है, और वहां श्रुतज्ञानावरण कर्मों का एक ऐसा क्षयोपशम हो जाता है कि जिससे, शब्दतः नहीं सही, पदार्थबोध रूप से द्वादशाङ्ग श्रुत-प्राप्ति हो जाती है। ऐसा मानने में कोई दोष नहीं है। •न अकल्याण भाजनम् :- शायद प्रश्न होगा कि स्त्री लब्धि-योग्य होने से केवलज्ञान की लब्धि के योग्य भी हो, किन्तु वह अगर कल्याण का पात्र ही न हो तो इष्ट केवलज्ञान और मोक्ष सिद्ध करने के लिए कैसे समर्थ हो सकती है ? इसलिए यहां कहते हैं कि वह कल्याण पात्र भी नहीं है ऐसा नहीं; क्योंकि वह तीर्थंकर को जन्म देती है, और इससे बढ़कर कौन दूसरा कल्याण है ? ३५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410