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(ल० - प्रणिधानेन समाधिलाभ:-) प्रणिधानं यथाशयं, यद् यस्य तीव्रसंवेगहेतुः । ततोऽत्र सद्योगलाभः । यथाहुरन्ये, - 'तीव्रसंवेगानामासन्नः समाधिः मृदुमध्याधिमात्रत्वात्, ततोऽपि विशेष इत्यादि' । प्रथमगुणस्थानस्थानां तावदेवंविधमुचितमिति सूरयः ।
(पं० -) 'ततोऽत्रे'त्यादि, ततः = तीव्रसंवेगादुक्तरूपाद्, अत्र = प्रणिधाने, 'सद्योगलाभः' = शुद्धसमाधिप्राप्तिः । परसमयेनापि समर्थयन्नाह 'यथाहुः', 'अन्ये' = पतञ्जलिप्रभृतयः । यदाहुस्तदेव दर्शयति, - 'तीव्रसंवेगानां' = प्रकृष्टमोक्षवाञ्छानाम्, 'आसन्नः' = आशुभावी, 'समाधिः' = मनःप्रसादः, 'यतः' इति गम्यते । अत्रापि तारतम्याभिधानायाह, - 'मृदुमध्याधिमात्रत्वात्', मृदुत्वात् सुकुमारतया, मध्यत्वाद् अजघन्यानुत्कृष्टतया, अधिमात्रत्वात् प्रकृष्टतया, तीव्रसंवेगस्य। 'ततोऽपि' = तीव्रसंवेगादपि, किं पुनर्मन्दान्मध्याद्वा संवेगाद्, 'विशेषः' त्रिविधः समाधिरासन्नासन्नतरासन्नतमरूपः, 'आदि'शब्दान्मृदुना मध्येनाधिमात्रेण चोपायेन यमनियमादिना (प्र० .... नियमादि) समवाय (प्र० .... समय) वशात् प्रत्येकं मृदुमध्याधिमात्रभेदभिन्न (प्र०... ना) तया त्रिविधस्य समाधेर्भावात् नवधासौ वाच्य इति ।
आशय - प्रणिधान - तीव्रसंवेग - समाधि क्रमश:
यहां जो प्रणिधान किया जाता है, वह जैसा अपना शुभाशय होगा वैसा बनेगा। इसलिए उच्चतम प्रणिधान के लिए उच्चतम शुभाशय बनाना आवश्यक है। शुभाशय कहिए, शुभ परिणति, शुभ अध्यवसाय, या शुभ भाव कहिए, एक ही चीज है; जितना वह ज्वलन्त होगा उतना ही इस सूत्र में वर्णित भवनिर्वेदादि की आशंसा में प्रणिधान ज्वलन्त होगा। लेकिन एक बात है कि वह प्रणिधान जिस प्रकार तीव्र संवेग याने मोक्षाभिलाषा का जनक बने वैसा करना चाहिए। सामान्य मोक्षेच्छा होने पर भी भवनिर्वेदादि की आशंसा हो सकती है, लेकिन अब प्रणिधान अर्थात् उसमें एकाग्र मनःस्थापन करने से मोक्षाभिलाषा बढती है। तीव्र संवेगार्थ तीक्ष्ण प्रणिधान करना चाहिए। तभी वैसे प्रणिधान से तीव्र संवेग द्वारा सम्यग् योग अर्थात् शुद्ध समाधि प्राप्त होती है।
___ इतर शास्त्रों में भी इसका समर्थन मिलता है; जैसे कि योगदर्शनकार पतञ्जलि आदि कहते हैं, – 'तीव्र संवेग याने अत्युत्कट मोक्षाभिलाषा वालों को समाधि शीघ्रभावी होती है। समाधि यह निर्मल मनःप्रसाद है। संवेग एवं समाधि की कई कक्षाएं होती है; इसलिए इनमें तारतम्य रहता है। तीव्र संवेग भी अगर सुकुमार हो तो मन्द, अगर जघन्य भी नहीं और उत्कृष्ट भी नहीं तब मध्यम, और यदि तेजस्वी हो तो उत्कृष्ट होता है। अब देखिए कि मन्द और मध्यम से तो क्या, किन्तु तीव्र संवेग से भी यह विशेष होता है कि समाधि शीघ्रभावी, अधिक शीघ्रभावी और अति शीघ्रभावी होती है। यहां 'इत्यादि' पद दिया है, इसमें 'आदि' पद से यह समझने का है कि संवेग की तरह यम - नियमादि कारणों से भी जो समाधि याने मनःप्रसाद प्राप्त होता है, वहां भी प्रत्येक मृदु, मध्य ओर उत्कृष्ट यमनियमादि से शीघ्र, शीघ्रतर और शीघ्रतम समाधि प्राप्त होती है। इस प्रकार संवेगाधीन त्रिविध समाधि प्रत्येक के भी यमनियमादिपालनवश त्रिविध त्रिविध भेद लेने से समाधि नौ प्रकार की भी कहनी चाहिए।
आचार्यों कहते हैं कि इस प्रकार का प्रणिधान पहले मिथ्यात्व गुणस्थानक में रहे हुए मन्द मिथ्यादृष्टि जीवों को होना अशक्य नहीं, युक्तियुक्त है। सर्वज्ञकथित तत्त्वों की बोधि न पाने से मिथ्यात्व उनका हट नहीं है लेकिन ऐसा प्रणिधान करने से आगे बढने पर बोधि पा सकते हैं।
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