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( ल० सत्प्रवृत्तिस्तत्त्वाविरोधिहृदयमूला - ) तत्त्वाविरोधकं हृदयमस्य; ततः समन्तभद्रता; तन्मूलत्वात् सकलचेष्टितस्य (अस्य) ।
(पं० --) कुत इदमित्थमित्याह ' तत्त्वाविरोधकं' = देवादितत्त्वा ( प्र ० .... देवत्वा) प्रतिकूलं, यतो‘हृदयम्,’ 'अस्य',= अपुंनर्बन्धकस्य, न तु प्रवृत्तिरपि; अनाभोगस्यैव तत्रापराधित्वात् । 'ततः ' = तत्त्वाविरोधकात् हृदयात्, 'समन्तभद्रता' = सर्व्वतः कल्याणता, नतु प्रवृत्तेः केवलायाः, कुशलहृदयोपकारित्वात् तस्याः, तस्य च तामन्तरेणापि क्वचित् फलहेतुत्वात् । कुत इत्याह 'तन्मूलत्वात्' तत्त्वाविरुद्धहृदयपूर्वकत्वात्, 'सकलचेष्टितस्य, शुभाशुभरूपपुरुषार्थप्रवृत्तिरूपस्य, (अस्यापुनर्बन्धकस्य) ।
धर्म-प्रतिकूल नहीं है। धर्म का बोज ऐसी देवप्रणामादि प्रवृत्ति में पड़ा है, नहीं कि हिंसादि या विषयपरिग्रहादि की प्रवृत्ति में । इसलिए नैगमनय से वह भी सत्प्रवृत्ति है; - ऐसा ऐदंपर्य का अन्त खोजने वाले कहते हैं ।
तत्त्वाविरोध हृदय का उच्च महत्त्व :
प्र० - अपुनर्बन्धक की सराग देवादि को की जाती प्रणामादि प्रवृत्ति शुद्ध धर्मगामिनी कैसे ?
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यहां प्रवृत्ति का स्वरूप देखने के बजाय हृदय का परिणाम देखने योग्य है । अपुनर्बन्धक का हृदय देवादिदे-तत्त्व के प्रति प्रतिकूल नहीं है, अविरोधी है, भले ही अशुद्ध देवादि के प्रति की गई प्रणामादि प्रवृत्ति शुद्ध देवादि - तत्त्व से प्रतिकूल दिखाई पडती हो, किन्तु हृदय तत्त्वविरोधी नहीं है। पूछिए तब प्रवृत्ति ऐसी क्यों ? इसीलिए कि हृदय ऐसा होने पर भी प्रवृत्ति प्रतिकूल होने में अपराध अनजानपन का है। शुद्ध तत्त्व का परिचय न होने के कारण ही प्रवृत्ति मिथ्या हो रही है, हृदय तत्त्व का विरोधी नहीं है । और समंतभद्रता याने सर्वतोमुखी कल्याणता केवल धर्मप्रवृत्ति से संपादित नहीं होती है। धर्म की प्रवृत्ति तो मलीन हृदय वाले की भी हो सकती है; इस से समंतभद्रता सिद्ध नहीं होगी; वह तो तत्त्वाविरोधी हृदय से संपादित होगी। अगर प्र हो कि तब कुशल प्रवृत्ति का समंतभद्रता में क्या उपयोग ? उत्तर यह, कि कुशल प्रवृत्ति कुशल हृदय रखने में उपकारक है । प्रवृत्ति शुद्ध हो तब हृदय पवित्र याने तत्त्वाविरोधी रखने में सुविधा होती है। बाकी फल का आधार कुशल हृदय है । क्वचित् ऐसा भी हो सकता है कि बाह्य कुशल प्रवृत्ति बिना भी तत्त्वाविरोधी कुशल हृदय समन्तभद्रता स्वरूप फल की उत्पत्ति में कारणभूत हो । इसका कारण यह है कि दरअसल अपुनर्बन्धक की समस्त शुभाशुभ पुरुषार्थप्रवृत्ति तत्त्वाविरोधी हृदय पूर्वक होती है वहां मिथ्या देवादि की उपासनात्मक अशुभ प्रवृत्ति के मूल में भी तत्त्वाविरोधी हृदय ही कार्य करता है, और नैगमनय से वह समंतभद्रता में कारणभूत अवश्य है I
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'सुप्तमण्डित - प्रबोधदर्शन' आदि दृष्टान्त :
जैनदर्शन से ही अलग हुए भिन्न भिन्न प्रवाद के अनुसार अर्थात् प्रवाद में कथित 'सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शन' आदि सब दृष्टान्त यहां प्रस्थक के दृष्टान्त की तरह लगा सकते हैं। 'सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शन' का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार किसी सोये हुए पुरुष को कुंकुमादि से विभूषित कर दिया; अब उसे निद्रा हट जाने पर अपना परिवर्तित सुन्दर रूप का दर्शन आश्चर्य कराता है, जैसे कि 'यह क्या ? मैं सोया तब तो विभूषित नहीं था, तब यह कैसे हुआ ?' इस दृष्टान्तानुसार अपुनर्बन्धक जीव को भी सम्यग्दर्शन की जागृति आने पर अपना विलक्षण गुणसंपन्न स्वरूप देख कर आश्चर्य होता है कि यह क्या ! कैसे मैं गुणहीन पुरुष इन सब अद्भुत गुणों से संपन्न हो गया!' दरअसल सम्यक्त्व काल में दिखाई पड़ते गुण सहसा ही बिलकुल नये उत्पन्न नहीं हुए हैं, किन्तु पूर्वकाल
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