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श्री ललितविस्तरा महाशास्त्र की पंजिकाविवेचना के रचयिता महर्षि आचार्यदेव श्री मुनिचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज पंजिका की समाप्ति में लिखते हैं कि
" इस प्रकार की मुनिचन्द्रसूरि से रचित ललितविस्तरा - पंजिका में सिद्ध - महावीरादिस्तव ('सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र) हुआ । इस की पंजिका समाप्त होने पर यह ललितविस्तरा - पंजिका ग्रन्थ भी समाप्त हुआ ।
“ललितविस्तरा ग्रन्थ कठिन है, ( उसे समझने की कोशिश करती हुई मेरी ) बुद्धि निपुण नहीं है, अर्थात सूक्ष्म भाव - ग्राहक नहीं है । और मुझे उस प्रकार के सूक्ष्मार्थ- बोध की गुरु परंपरा भी मिली नहीं है; (तथा जिन दर्शनान्तरो के मत का निराकरण इस ललितविस्तार में किया गया है उन ) अन्य दर्शनों के मत सम्बन्धी शास्त्र भी मेरे पास नहीं है; फिर भी अपने स्मरण की सुविधा एवं परहित - संपादन के लिए अपने बोध के अनुसार इस पंजिका निर्माण में चित्त की निर्मलता के साथ प्रवृत्त हुआ हूँ । अत: मैं अपराधपात्र न हो (ऐसी अभिलाषा रखता हूँ; क्यों कि स्वस्मृति एवं परहित के उद्देश्य वश निर्मल अन्तःकरण से किया गया प्रयत्न उपालम्भ - योग्य नहीं हैं। )
प० पू० सिद्धान्तमहोदधि गुरुदेव आचार्यदेव श्रीमद् विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज के सुप्रसाद से पंन्यास भानुविजय गणी के द्वारा श्री ललितविस्तरा महाशास्त्र की पंजिकानुसार रची हुई संक्षिप्त हिन्दी - विवेचनां समाप्त । ॥ श्री ललितविस्तरा महाशास्त्र समाप्त ॥
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