Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 407
________________ (लं० - दर्शनान्तरेषु आदिधार्मिका :- ) 'नानिवृत्ताधिकारायां प्रकृतावेवंभूत' इति कापिलाः । 'न अनवाप्तभवविपाक' इति च सौगताः । 'अपुनर्बन्धकास्त्वेवंभूता' इति जैनाः । तच्छ्रोतव्यमेतदादरेण, परिभावनीयं सूक्ष्मबुद्ध्या । शुष्केक्षुचर्वणप्रायमविज्ञातार्थमध्ययनम्, रसतुल्यो ह्यत्रार्थः । स खलु प्रीणयत्यन्तरात्मानं, ततः संवेगादिसिद्धेः; अन्यथात्वदर्शनात् । तदर्थं चैष प्रयास इति न प्रारब्धप्रतिकूलमासेवनीयं । प्रकृतिसुन्दरं चिन्तामणिरत्नकल्पं संवेगकार्यं चैतद्, इति महाकल्याणविरोधि न चिन्तनीयम् । चिन्तामणिरत्नेऽपि सम्यग्ज्ञातगुण एव श्रद्धाद्यतिशय (प्र० द्याशय) भावतोऽविधिविरहेण ( प्र० ऽवधिविरहेण ) महाकल्याणसिद्धि (प्र० ... सिद्धे ) रित्यलं प्रसङ्गेन । (पं० - ) 'एतदिति' = इदमेव प्रकृतं चैत्यवन्दनव्याख्यानम् इति, 'महे 'त्यादि, महतः = सच्चैत्यवन्दनादे:, कल्याणस्य = कुशलस्य, विरोधि = बाधकम् अवज्ञाविप्लावनादि, 'न' = नैव, 'चिन्तनीयम्' अध्यवसेयं, कुत इत्याह 'चिन्तामणी 'त्यादि सुगमम् । । इति श्री मुनिचन्द्रसूरिविरचित्तायां ललितविस्तरापञ्जिकायां सिद्धमहावीरादिस्तवः समाप्तः । ॥ तत्समाप्तौ समाप्ता चेयं ललितविस्तरापञ्जिका ॥ कष्ट ग्रन्थो, मतिरनिपुणा, संप्रदायो न तादृक्, शास्त्रं तन्त्रान्तरमतगतं सन्निधौ नो तथापि । स्वस्य स्मृत्ये परहितकृते चात्मबोधानुरूपं, मागामागः पदमहमिह व्यापृतश्चित्तशुद्ध्या ॥ १ ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य ग्रन्थमानं विनिश्चितम् । अनुष्टुपे सहस्त्रे द्वे पञ्चाशदधिके तथा (२०५०) ।। मङ्गलमस्तु । शुभं भवतु । • बुद्धमतानुयायी बौद्धदर्शन वाले कहते हैं कि जब तक भवविपाक नहीं होता है तब तक आदिधार्मिक बना जा सकता नहीं । भवपरिपाक होने पर आदिधार्मिकता आ सकती है। = • जैनदर्शन वाले कहते हैं कि अपुनर्बन्धक जीव ही ऐसे गुणसंपन्न आदिधार्मिक की कक्षा में उपदेशपात्र होते हैं ।' इसलिए यह चैत्यवन्दन-व्याख्यान आदर से, बहुमानयुक्त सावधान प्रयत्न से सुनना चाहिए, और सूक्ष्म निपुण बुद्धि से इसके पदार्थों पर मनन करना चाहिए। केवल सूत्र पढ लेना पर्याप्त नहीं है; क्यों कि अर्थबोध रहित अध्ययन मात्र तो सूखी ईख के चर्वणतुल्य है; इससे रसास्वाद नहीं मिल सकता। अध्ययन किये हुए सूत्र का अर्थ रसतुल्य है; वही ठीक ज्ञात हुआ अन्तरात्मा को प्रसन्न करता है; क्यों कि अर्थबोध से संवेग याने शुद्ध धर्म की प्रीति उत्पन्न होती है; अन्यथा बिना सम्यग् अर्थबोध संवेग हुआ दिखाई पड़ता नहीं है। यह चैत्यवन्दन-व्याख्यान का प्रयास सम्यग् अर्थबोध कराने के लिए किया गया है; इसलिए प्रारब्ध के प्रतिकूल इस की अवज्ञा अवमूल्यांकन आदि करने योग्य नहीं । चैत्यवन्दन सूत्रों में गर्भित भावों का विशिष्ट विवेचन सहज सुन्दर है, संवेग को उत्पन्न करता है, और प्राप्त संवेग की अभिवृद्धि करता है; अत: वह चिन्तामणिरत्न समान है। प्रस्तुत चैत्यवन्दनव्याख्यान से जब चैत्यवन्दन का महान प्रभाव एवं वैशिष्ट्य ज्ञात होता है, तब यह ध्यान रखने योग्य है कि ऐसे महाकल्याण स्वरूप सम्यक् चैत्यवन्दन की अवज्ञा, उपहास, तिरस्कारादि मन में भी Jain Education International ३८२ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 405 406 407 408 409 410