Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 404
________________ ऐसा गुणसंपन्न जीव मार्गानुसारी कहलाता है; मार्गानुसारी अर्थात् सम्यग्दर्शनादि स्वरूप मोक्षमार्ग के प्रति अनुसरण करने वाला । वह अवश्य अपुनर्बन्धकादि की कक्षा को प्राप्त हुआ ही होता है । जो ऐसी कक्षा को प्राप्त नहीं है उसमें ऐसी गुणसंपत्ति विद्यमान हो ही नहीं सकती । अपुनर्बन्धकादि-अवस्था के उपयोगी मिथ्यात्वादि-मन्दता या मिथ्यात्वादि-क्षयोपशम हुआ हो तभी उक्तगुणसंपत्ति का आकर्षण एवं प्राप्ति हो सकती है। अब वहां शुद्ध तत्त्व की अभिलाषा से हो रही देवादिपूजा वगैरह प्रवृत्ति समग्र रूप से देखी जाए तब सत्प्रवृत्ति प्रतीत होती है। प्र० - यह कैसे ? आदिधार्मिक को तो जहां तक शुद्ध देव गुरुधर्म प्राप्त नहीं है वहां तक तो वह मिथ्यादेवगुरुधर्म की उपासनादि करता है; तब ऐसी उपासनादि प्रवृत्ति कैसे सत्प्रवृत्ति कही जा सके? ___ उ० - सत्प्रवृत्ति का कथन नैगमनय के अनुसार किया गया है। नैगमनय की दृष्टि से लोक में कई व्यवहार रूढ है और वे सत्य व्यवहार है । पर्वत पर का घास जलने पर 'देखो' पर्वत जल रहा है,' कुण्डी के छिद्र में से पानी गिलने पर 'कुण्डी गिलती है,' कपडे बनाने हेतु बुनने वाले की यन्त्र-सज्जीकरण क्रिया पर 'यह कपडा बनाता है' ........ ऐसा एसा सच्चा प्रतिपादन होता है। ये सब नैगमनय की दृष्टि से लोक में मान्य रहते हैं, और ऐसे वाक्य प्रयोग से किसी को भ्रान्ति नहीं होती है। नैगमनय पूर्वतम कारण अथवा अतिसंबद्ध को देखता है, इसमें कार्य की आद्यभूमिका यानी दीर्घ निष्पत्तिव्यापार का प्रारम्भ देखने से वहां बहु पूर्व के कारण में भी कार्य हो रहा है' ऐसा ठीक ही समझ रहा है । अनुयोगद्वार आगम में नैगमनय के तीन दृष्टान्त - वसति, प्रदेश और प्रस्थक के आते हैं। इसमें से प्रस्थक के दृष्टान्त पर यहां अपुनर्बन्धक आत्मा की इतरदेवप्रणामादि प्रवृत्ति को सत्प्रवृत्ति कही जाती है। ___जिस प्रकार 'प्रस्थक' नामक काष्ठ का एक धान्य नापने वाला नापविशेष बनाने के लिए कोई आदमी पहले तो पेड़ से काष्ठ प्राप्त करने के लिए पेड़ पर कुठाराघात करता हैं। वहां अगर कोई पूछे कि 'क्या कर रहा है ?' तो वह कहेगा 'मैं प्रस्थक बनाता हूँ।' नैगमनयानुसार कुठाराघातकी प्रवृत्ति भी प्रस्थक निर्माण की ही प्रवृत्ति है वैसा लोग मान्य करते हैं; एवं प्रस्थक के भीतरी भाग के उत्कीरणार्थ शस्त्र कुठार सज्ज करने की प्रवृत्ति करते समय भी 'प्रस्थक बना रहा हूँ' ऐसा कहा जाता है, ठीक इसी प्रकार मार्गानुसारी की प्रारम्भिक प्रवृत्ति भी सत् मार्ग प्रवृत्ति पर ले चलने वाली है इसलिए प्रस्थक प्रवृत्ति से संबोधित आद्य कुठार प्रवृत्ति के समान आद्य मार्गानुसारी प्रवृत्ति को भी सत्प्रवृत्ति से संबोधित करना, यह नैगमनयानुसार कुछ भी असंगत नहीं है। आदि से लेकर इसकी प्रवृत्ति, भिन्न भिन्न धर्म के अनुयायी की अपेक्षा विचित्र होने पर भी नैगम नयमतानुसार प्रस्थकप्रवृत्ति की तरह सत्प्रवृत्ति ही है। अतः इसके संबन्ध में कहा गया है कि 'कुठारादिप्रवृत्तिरपि रू पनिर्माणप्रवृत्तिरेव' - इत्यादि। इसका भाव यह है कि प्रस्थक रूप नापविशेष बनाने में काष्ठ के भीतर प्रस्थक का आकार खुदने की तो बात क्या, किन्तु योग्य काष्ठ का छेदन करने के लिए उपयुक्त कुठार (कुदाली) रूप शस्त्र की - निर्माण-प्रवृत्ति, जैसे कि उसे घडना, उसमें दण्ड लगाना, उसकी धार तीक्ष्ण बनाना यह भी प्रस्थक के आकार-निर्माण की ही प्रवृत्ति है; क्यों कि साधनभूत उपकरण सज्ज करने की प्रवृत्ति किये बिना कर्तव्य कार्य के निर्माण की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। तब प्रस्थकाकार बनाने में कुठार-सज्जीकरण की प्रवृत्ति के समान अपुनर्बन्धक की देवताप्रणामादि धर्मसंबन्धी प्रवृत्ति सदोष होने पर भी दुराग्रहरहित होने की वजह समष्टि रूप से शुद्ध धर्म के प्रति ही प्रयाण कर रही है किन्तु ३७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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