Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 402
________________ अन्तःकरण को भावित - वासित करना चाहिए । (भावित किये बिना श्रवण निष्फल हो जाता है, इतना ही नहीं प्रत्युत बहुमूल्य शास्त्रवचन सामान्य-सा प्रतीत हो अनादि वासना विवश मन धृष्ट-सा हो जाने से भावी भावितता के लिए अयोग्य होता है। भावित करने से पापसंज्ञाओ के बन्धन शिथिल हो जाते है, अच्छा आत्मपरिवर्तन होता है।) • (१३) शास्त्रोपदेश को मात्र भावित ही नहीं किन्तु सविधि आचरणबद्ध भी करना चाहिए अर्थात् त्याज्य का त्याग और आदरणीय का आदर करने में प्रयत्नशील रहना चाहिए । (जीवन का ठीक उत्थान आचरण के अधीन है।). (१४) किसी भी आपत्ति में धैर्य रखना, विह्वल न होना । (आपत्ति में है क्या? क्या होने वाला है ?' ऐसी हिम्मत रखने से मन पर दुःख का भार कम रहता है, योग्य प्रतिकार की विचारणा को अवकाश रहता है, अधिक अनर्थ से बच जाता है।).(१५) भविष्य का पर्यालोचन करना, कार्यमात्र में केवल तत्काल का नहीं किन्तु भावी परिणाम को पूर्ण रूप से सोच लेना एवं दीर्घ परलोक-काल पर ठीक दृष्टि रखना, - 'वर्तमान प्रवृत्ति से भावी काल उज्ज्वल होगा या अन्धकारमय ?' इसकी आलोचना करना । (भावी की विचारणा करने से अनर्थकारी प्रवृत्ति रुक जाती है, और संभवित अनर्थ एवं पछतावा से बच जाता है।) • (१६) मृत्यु का ख्याल रखना । (इससे सत्कृत्य में विलम्ब न करने का एवं पापों से यथाशक्य बचने का ध्यान रहता है; क्यों कि क्या पता मृत्यु शीघ्र ही आ गई तब? सुकृतकाल का क्षय होने पर पापों का भार ले कर चलना होगा।) • (१७) प्रत्येक वाणी-विचार-आचरण में प्रधान रूप से परलोक पर दृष्टि रखना । जीवन इस लोकप्रधान नहीं किन्तु परलोकप्रधान जीने से पवित्रता सुलभ होती है, स्वार्थरसिकता - तृष्णा - ममत्वादि कम हो परार्थता-परमात्मसेवा इत्यादि से जीवन सफल होता है।) • (१८) गुरुजन की सेवा उपासना करनी । (माता पितादि एवं विद्यागुरु की सेवा से कृतज्ञता का पालन एवं धर्मगुरु की सेवा से 'साधूनां दर्शने पुण्यं....' इत्यादि अनुसार दर्शन - वंदन - पर्युपासना द्वारा पुण्य एवं सद्बोध - सच्चारित्र का लाभ मिलता है।). (१९) आध्यात्मिक भाव वर्द्धक, मन्त्राक्षरादिसहित इष्टदेवादि के चित्रमय योगपट्ट का बार बार दर्शन करना चाहिए। (भावपूर्ण एकाग्र दर्शन से श्रद्धाबल, एकाग्रता आदि बढता है।) • (२०) उस योगपट्ट में आलेखित किये हुए का ठीक अवधारण द्वारा चित्त में स्थापन करना चाहिए। .(२१) वह चित्त में हूबहू धारित हुआ कि नहीं उसकी जांच करते रहना।.(२२) योगपट्ट की धारणा करते समय विक्षेप याने चित्तस्खलन न हो इसलिए चित्तविक्षेप के निमित्त का त्याग करना, विक्षेप का मार्ग छोड देना । (योगपट्ट की विक्षेप रहित धारणा चित्त में स्थिर हो जाने से निवृत्ति पाने पर एवं कभी भी चित्तसंक्लेश होने पर उस योगपट्ट का स्मरण एक महान शान्ति-स्फुर्तिप्रद पुण्यवर्धक आलम्बन होता है।). (२३) योग की सिद्धि करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए । (इससे बहिर्भाव का नाश एवं आध्यात्मिक भाव की वृद्धि होती है। आन्तरभाव बढता बढता परमात्मभाव तक पहुँच सकता है।). (२४) परमात्मा की प्रतिमाओं का निर्माण करना चाहिए । (जिनबिम्ब भराने से परभव में बोधिभाव होता है ।) . (२५) त्रिभुवनगुरु भगवान के शास्त्र लिखने या लिखवाने चाहिएं । (लिखीत शास्त्र भावी दीर्घ काल तक धर्म-परंपरा चलाने में प्रबल आधार होते हैं । प्रतिमा एवं शास्त्र के निर्माण से भगवत् के परम उपकार प्रति कृतज्ञता का पालन भी होता है।) • (२६) मंगलमय जप करना । (जप करने से त्रिकरणशुद्धि हो आत्मबल बढता है, विघ्नों का शमन होता है, इष्टसिद्धि होती है ।) • (२७ - २८ - २९) प्रतिदिन त्रिसंध्य चतुःशरणगमन, दुष्कृतगर्दा, और सुकृतानुमोदन करना चाहिए । चार शरण; अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं सर्वज्ञभाषित धर्म, - इन को हृदय से अङ्गीकार करना । जन्म - जन्मान्तर के सभी दुष्कृत्यों की निन्दा - गर्दा - जुगुप्सा करनी। अरिहंत प्रभु आदि समस्त के सद्गुण व सत्कृत्यो की अनुमोदना करनी । यों तो त्रिसंध्य, किन्तु विशेष में जब जब चित्त में राग-द्वेषादि का संक्लेश हो तब तब ये ३७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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