Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 401
________________ निवृत्ति या उदासीनता में अन्तरात्मा की परिणति किस प्रकार चल रही है। अगर वह पुण्यफल-भोग के प्रति उदासीन उद्विग्न एवं शम-संवेगयुक्त जगत्तत्त्व चिन्तन प्रमुख किसी शुभ भाव से वासित है तब वहां मोक्षमार्ग - गमन ही है। चैत्यवन्दन के अनन्तर : इस प्रकार प्रशस्त फल देने वाले प्रणिधान सूत्र ('जयवीयराय'०) को पढने तक चैत्यवन्दन का अनुष्ठान हुआ। उसके बाद एक या अनेक साधक आचार्य आदि को वन्दन कर कुग्रहविरह याने कदाग्रह मिथ्यामति, विपर्यास आदि से रहित हो यथोचित कर्तव्य करे। यहां 'कुग्गह-विरह' में 'विरह' शब्द श्री हरिभद्रसूरिजी महाराज के अपने नाम का गूढ संकेत है। चैत्यवन्द की सिद्धि के लिए ३३ कर्तव्य : चैत्यवन्दन सम्यग् रूप से सिद्ध हो इसलिए ३३ कर्तव्य याने गुणों की आवश्यकता है। चैत्यवन्दन महायोग है वह परिणत आत्मा में सिद्ध हो सकता है। आत्मा को ये ३३ कर्तव्य यथायोग्य परिणत बना सकते हैं। अरिहंत परमात्मा को वन्दना करने का महायोग सिद्ध करने में जरुरी ३३ गुणों की साधना का उपन्यास ग्रन्थकार करते हैं। इसमें, . (१) आदिकर्म याने आदिधार्मिक के कर्तव्यों के पालन में यत्नशील रहना चाहिए । • (२) अकल्याणमित्र याने आत्महित के शत्रु से, आत्महित को हानि पहुँचाने वाले के संसर्ग से दूर रहना चाहिए । 'संसर्गजन्या गुण-दोषवाताः' शुभ सङ्ग या अशुभ सङ्ग से गुणसमूह या दोषसमूह पैदा होता है; तब अकल्याणमित्र के संसर्ग से तो इस गुणप्राप्तिसुलभ मानव भव में, उलट, दोषों एवं पापों की सुलभता और गुणनाश बन जायगा । • (३) कल्याण मित्रों का समागम-सत्सङ्ग करना चाहिए । आत्महितकारी पुरुषों का संसर्ग रख कर उनसे आत्महितकर प्रेरणा ग्रहण करते रहना चाहिए । (अपनी आत्मा को बिना सहाय सदा अकर्तव्य - पराङ्मुख एवं सदा कर्तव्यपथबद्ध रहना मुश्किल है, कल्याणमित्र के सहयोग से वह सुलभ हो जाता है।). (४) कभी उचित व्यवहार का उल्लंघन नहीं करना; औचित्यभङ्ग नहीं करना । (औचित्यपालन धर्मजीवन का प्राथमिक गुण है। औचित्य के उल्लंघन से कई अनर्थ उपस्थित हो जाते हैं।). (५) लोकव्यवहारसापेक्ष रहना चाहिए। (लोकव्यवहार से निरपेक्ष बनने पर करुणार्ह लोगों के हृदय को आघात, उनको धर्मप्रशंसा में विक्षेप, यावत् उन्हें धर्मनिन्दा का अवकाश मिल जाता है।) • (६) माता-पितादि, विद्यागुरु, एवं धर्माचार्य, इन गुरु वर्ग को मान्य रखना उनका सत्कार-सन्मान करना चाहिए । (मान्य रखने से मन पर सुयोग्य भार रहता है, सत्कार सन्मान करने से 'विनय एवं पूज्यपूजा' रूप महाधर्म का पालन होता है।) • (७) गुरुजनों के अधीन रहना चाहिए । (अन्यथा उद्धतपन, अविचारित कार्य, इत्यादि त्रुटियों के वश जीवन अनर्थभरपूर हो जाता है।) • (८) दान आदि शुभ प्रवृत्तियों में प्रवृत्ति रखनी । (दानादि प्रवृत्ति से सहृदयता, उदारता, लोकप्रियता, चित्तस्वस्थता आदि गुण प्राप्त होने से सुख शान्ति का अनुभव होता है।) • (९) परमात्मा का, उदार धन व्यय से, पूजन करना । (इससे शुभभाववृद्धि और पुण्यलाभ होता है।). (१०) अच्छे साधु का अन्वेषण करना । (ता कि कुगुरु के फंदे में न फंसा जाए, और सुसाधु मिल जाने से धर्म-तत्त्वशिक्षा आदि का लाभ हो।). (११) सुसाधु के पास विनय-एकाग्रता-संभ्रमादि विधिपूर्वक धर्मशास्त्र सुनना जरूरी है। क्यों कि संसार के अनेकविध जन्मों के भीतर मानवजन्म में ही धर्मशास्त्र श्रवण सुलभ होता है; और इससे आत्मभान एवं कर्तव्यशिक्षा मिलने से अनंत सुख का मार्ग खुल जाता है) . (१२) धर्मशास्त्र की सुनी हुई बातों पर महान प्रयत्न से चिंतन - मनन कर उनसे ३७६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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