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(ल० - चैत्यवन्दनाद्यर्थं ३३ कर्त्तव्यानि)
एतत्सिद्धयर्थं (प्र० ... ० सिद्धये) तु, - १. यतितव्यमादिकर्मणि
१८. सेवितव्यो गुरुजनः २. परिहर्त्तव्यो अकल्याणमित्रयोगः
१९. कर्त्तव्यं योगपटदर्शनं (प्र० .. योगपट्ट०) ३. सेवितव्यानि कल्याणमित्राणि
२०. स्थापनीयं तद्रूपादि चेतसि ४. न लङ्घनीयोचितस्थितिः
२१. निरू पयितव्या धारणा . ५. अपेक्षितव्यो लोकमार्गः
२२. परिहर्त्तव्यो विक्षेपमार्गः ६. माननीया गुरुसंहतिः
२३. यतितव्यं योगसिद्धौ (प्र० ... शुद्धौ) ७. भवितव्यमेतत्तन्त्रेण
२४. कारयितव्या भगवत्प्रतिमाः ८. प्रवर्तितव्यं दानादौ
२५. लेखनीयं भुवनेश्वरवचनं ९. कर्त्तव्योदारपूजा भगवतां
२६. कर्त्तव्यो मङ्गलजापः १०: निरू पणीयः साधुविशेषः
२७. प्रतिपत्तव्यं चतुःशरणं ११. श्रोतव्यं विधिना धर्मशास्त्रं
२८. गर्हितव्यानि दुष्कृतानि १२. भावनीयं महायत्लेन
२९. अनुमोदनीयं कुशलं १३. प्रवर्तितव्यं विधानतः
३०. पूजनीया मन्त्रदेवताः १४. अवलम्बनीयं धैर्य
३१. श्रोतव्यानि सच्चेष्टितानि १५. पर्यालोचनीया आयतिः
३२. भावनीयमौदावें १६. अवलोकनीयो मृत्युः
३३. वर्तितव्यमुत्तमज्ञातेन । १७. भवितव्यं परलोकप्रधानेन
प्र० - जिसे तत्त्वमार्ग ज्ञात है उसे सदुपदेश से क्या लाभ?
उ० - ज्ञाता को भी सदुपदेश सुनने से उत्तम शुभ भाव अखण्डित रहता है, द्रव्य से आराधना यदा - कदा होने पर भी भाव से वह धाराबद्ध बनी रहती है; यह महान लाभ सदुपदेशश्रवण का है। ऐसा मनुष्य बीच बीच में लौकिक पुण्य का फलभोग भी करता हो, फिर भी सदुपदेश का पुनः पुनः श्रवण उसके अन्तर को शुभ भाव में इतना मग्न रखता है कि लौकिक पुण्यफल के भोग के प्रति वह दत्तचित्त नहीं रहता, अर्थात् फलभोग अज्ञात-सा पसार होता है। ऐसे अनजान फलभोग से भी उसका मोक्षमार्गगमन स्खलित नहीं होता है; मोक्षमार्ग याने सम्यग् ज्ञानादि की परिणति में अस्खलित प्रयाण ही चालू रहता है। यह सदन्धन्याय से सुज्ञेय है। सदन्धन्याय इस प्रकार हैं - भाग्यवान सावधान अन्ध पुरुष रास्ते को न देखता हुआ भी सद्भाग्यवश सत्य मार्ग पर चला जाता है। इसी दृष्टान्त के अनुसार सदुपदेशलभ्य सतत जागृति वाला पुरुष, पुण्यफल का रसशून्य हृदय से भोग करता हुआ भी, मोक्षमार्ग में ही अविरत गमन वाला होता है; - ऐसा अध्यात्म-चिन्तक लोगों का मन्तव्य है । बाह्य भौतिक दृष्टि नहीं किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से विचार करने वाले तो यही देखते हैं कि किसी भी कायिक प्रवृत्ति,
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