Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 389
________________ (ल० - ) जय वीयराय ! जगगुरु ! होउ मम तुहप्पभावओ भयवं!। भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफलसिद्धी ॥ १ ॥ लोयविरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूया परत्थकरणं च । सुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखण्डा ॥ २ ॥' अस्य व्याख्या, - 'जय वीतराग ! जगद्गुरो !' - भगवतस्त्रिलोकनाथस्यामन्त्रणमेतत् भावसन्निधानार्थम् । 'भवतु मम त्वत्प्रभावतो' - जायतां मे त्वत्सामर्थ्येन; 'भगवन् !', किं तदित्याह 'भवनिर्वेदः' - संसारनिर्वेदः, न ह्यतोऽनिविण्णो मोक्षाय यतते, अनिविण्णस्य तत्प्रतिबन्धात्, तत्प्रतिबद्धयत्नस्य च तत्त्वतोऽयत्नत्वात् ; निर्जीव (प्र०... निर्बीज) क्रियातुल्य एषः । तथा 'माग्र्गानुसारिता' - असद्ग्रहविजयेन तत्त्वानुसारितेत्यर्थः । तथा 'इष्टफलसिद्धिः' = अविरोधिफलनिष्पत्तिः, अतो हीच्छाविघाताभावेन सौमनस्यं, तत उपादेयादरः, न त्वयमन्यत्रानिवृत्तौत्सुक्यस्य, इत्ययमपि विद्वज्जनवादः। (पं० -) 'अतोही'त्यादि, अतः = इष्टफलसिद्धः, हिः = यस्माद्, 'इच्छाविघाताभावेन' = अभिलाषभङ्गनिवृत्त्या, किमित्याह 'सौमनस्यं' = चित्तप्रसादः, 'ततः' = सौमनस्याद्, 'उपादेयादरः', उपादेयेदेव-पूजनादौ, आदरः = प्रयत्नः । अन्यथापि कस्यचिदयं स्यादित्याशङ्क्याह 'न तु' = न पुनः, 'अयम्' = उपादेयादर:, 'अन्यत्र' = जीवनोपायादौ, 'अनिवृत्तौत्सुक्यस्य' = अव्यावृत्ताकाङ्क्षातिरेकस्येति, तदौत्सुक्येन चेतसो विह्वलीकृतत्वात्। अब प्रणिधान - सूत्र और इसका भाव बतलाया जाता है, -- 'जय वीयराय ! जगगुरु ! होउ मम तुहप्पभावओ भयवं !। भवनिव्वेओ मग्गाणुसारिआ इट्ठफलसिद्धी ॥ १ ॥' हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! आप विजयवंत रहें। आप की सामर्थ्य से हे भगवंत ! मुझे यह हो, - भवनिर्वेद, मार्गानुसारिता, इष्टफलसिद्धि । __ यहां 'हे वीतराग' कह कर वीतराग प्रभु से संबोधन इसलिए किया है कि द्रव्य से तो वे मोक्ष या महाविदेह में हैं लेकिन वे भाव से संनिहित रहें अपने हृदय में रहे, अपने दिल के रागादि आभ्यन्तर शत्रुगण पर विजय प्रसाधित करे । अथवा भावसंनिधानार्थ अर्थात् भवनिर्वेदादि भावों के सहज - सरल नैकट्य के लिए वीतराग प्रभु से संबोधन किया गया है। वीतराग अर्हत्परमात्मा की ऐसी अचिंत्य सामर्थ्य है, महिमा है, कि जिससे जीवों को भवनिर्वेदादि प्राप्त होते हैं, इसलिए 'होउ मम' इत्यादि प्रार्थना की। • भवनिर्वेद' का अर्थ संसार से उद्वेग होता है। जो संसार से उद्विग्न नहीं है वह मोक्ष के लिए प्रयत्न नहीं करता ; क्यों कि अनुद्विग्न को संसार पर ममत्व रहता है; तब संसार से मुक्त होने के लिए क्यों प्रयत्न करे? और कदाचित् प्रयत्न दिखाई पड़े तो संसारासक्त का वह प्रयत्न वास्तव में भोक्षार्थ प्रयत्न ही नहीं है; वह तो निर्जीव की क्रियातुल्य है। • तथा 'मार्गानुसारिता' यह असद्ग्रह पर विजय प्राप्त कर अर्थात् अतत्त्व के पक्षपात को हटा कर प्राप्त की जाती तत्त्वानुसारिता स्वरूप है । यथार्थ तत्त्व एवं मोक्षमार्ग का अनुसरण यह मार्गानुसारिता यहां आशंसनीय है । • 'इष्टफलसिद्धि' यह अविरोधी फल की निष्पत्ति स्वरूप है। 'अविरोधी फल से उपादेय देवपूजनादि - साधना के लिए अप्रतिकूल ३६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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