Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 395
________________ (ल०-८. ९. - प्रणिधानप्रत्यक्षपरोक्षलाभौ :-) अतिगम्भीरोदार (प्र० ... ०दाररू प) मेतत् । अतो हि प्रशस्तभावलाभाद्विशिष्टक्षयोपशमादिभाततः प्रधानधर्मकायादिलाभः । तत्रास्य सकलोपाधिशुद्धिः(प्र०...विशुद्धिः),दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवनेन श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञावृघ्या । (पं० -) इदमेव भवियति 'अतिगम्भीरोदारमि'ति प्राग्वत्, ‘एतत्' = प्रणिधानं, कुत इत्याह अंतः' = प्रणिधानाद्, 'हिः' = यस्मात्, 'प्रशस्तभावलाभात्' = रागद्वेषमोहैरच्छुसपरिणामप्राप्तेः, किमित्याह विशिष्टस्य' मिथ्यात्वमोहनीयादेः शुद्धमनुजगतिसुसंस्थानसुसंहननादेश्च कर्मणो यथायोगं 'क्षयोपशमस्य' = एकदेशक्षयलक्षणस्य, 'आदि'शब्दाद् बन्धस्य, 'भावतः' = सत्तायाः, प्रेत्य 'प्रधानधर्मकायादिलाभः', प्रधानस्य' = दृढसंहननशुभसंस्थानतया सर्वोत्कृष्टस्य, धर्मकायस्य' = धाराधनार्हशरीरस्य, 'आदि'शब्दादुज्ज्वलकुलजात्यायुर्देश (प्र० .... जात्यार्यदेश) कल्याणमित्रादेः, 'लाभः' = प्राप्तिः । ततः किमित्याह, - 'तत्र' = धर्मकायादिलाभे, 'अस्य' = प्रणिधानकर्तुः, 'सकलोपाधिविशुद्धिः' = प्रलीननिखिलकलङ्कस्थानतया सर्वविशेषणशुद्धिः । कथमित्याह, - 'दीर्घकालं' - पूर्वलक्षादिप्रमाणतया, 'नैरन्तर्येण' = निरन्तण्यसातत्येन, 'सत्कारस्य' = जिनपूजायाः, 'आसेवनम्' = अनुभवः, तेन, 'श्रद्धा' = शुद्धमार्गरुचिः, वीर्यम्' = अनुष्ठानशक्तिः, ‘स्मृतिः' = अनुभूतार्थविषया ज्ञानवृत्तिः, 'समाधिः' = चित्तस्वास्थ्यं, 'प्रज्ञा' = बहुबहुविधादिगहनविषयावबोधशक्तिः, तासां वृद्ध्या' = प्रकर्षेण । अनासेवितसत्कारस्य हि जन्तोरदृष्टकल्याणतया तदाकाङ्क्षाऽसंभवेन चेतसोऽप्रसन्नत्वात् श्रद्धादीनां तथाविधवृद्ध्यभाव इति।। - अर्थात् प्रणिधान में प्रधान रूप से जो शुभ भावना करनी है वहां यह आवश्यक है कि • (१) अभिप्रेत शुभानुष्ठान अतिशय कर्तव्यबुद्धि से किया जाता हो। 'प्रस्तुत शुभानुष्ठान से विपरीत पापानुष्ठान बिलकुल कर्तव्य नहीं, त्याज्य है, और प्रस्तुत शुभानुष्ठान ही कर्तव्य है, यही उपादेय है,' ऐसी दृढ प्रतीति होनी चाहिए, ताकि वह रस, ममत्व और अनुपम आनन्द के साथ किया जाए। • (२) आहार - विषय - परिग्रह - निद्रा०, एवं क्रोध - मान - माया - लोभ०, लोक० और ओघ०, इन दश संज्ञाओ का निग्रह किया जाए, ता कि वे अनुष्ठान काल में उठ उठ कर अनुष्ठान की एकाग्र तन्मय साधना-धारा को खण्डित न कर दे; तथा . (३) अनुष्ठान के फल रूप में किसी भी धन-माल, सत्ता-सन्मान, यशकीर्ति आदि की आशंसा अपेक्षा न हो, ता कि अनुष्ठान अनासक्त भाव से होता रहे और अनादिलग्न मलिन पुद्गलासक्ति का पुनः शुभानुष्ठान से ही पोषण न हो किन्तु हास हो । . (४) इन तीनों के साथ साथ परोपकार - भावना एवं हीन क्रिया वालों के प्रति द्वेष नहीं किन्तु दयाभाव भी रखना जरूरी है; ऐसा 'षोडशक' शास्त्र में प्रणिधान के स्वरूप में कहा है, इन सब से युक्त शुभभावोल्लास यह विशुद्ध भावना है। (२) मनसमर्पण :- सब प्रणिधान में, पहले तो अनुष्ठान पर परम कर्तव्य बुद्धि, संज्ञानिग्रह और निराशंसभाव से संपन्न शुभ भावोल्लास प्रधान बना रहना चाहिए; दूसरा यह कि मात्र हृदय ईदृश भावना शाली होना पर्याप्त नहीं है किन्तु साथ में मन की प्रस्तुत अनुष्ठान में एकाग्रता एवं लंपटता भी आवश्यक है। इसके लिए मन को प्रस्तुत-अनुष्ठान विषय में समर्पित कर देना चाहिए । अनुष्ठान अगर चैत्यवन्दन आदि का हो तो इसके सूत्र से वाच्य पदार्थ में मन एकाग्रता से ठीक लगा हआ रहना चाहिए। (३) यथाशक्ति क्रिया :- प्रणिधान में विशुद्ध भावना और अर्थ-समर्पित मन के अलावा सच्ची भावना की द्योतक यथाशक्ति क्रिया का आचरण भी आवश्यक है; 'यथाशक्ति' मतलब वीर्य का कोई गोपन या ३७० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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