Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 385
________________ (ल० - वैयावृत्त्यकादिभिरज्ञातेऽपि पुण्यबन्धः ) नवरमेषां वैयावृत्त्यकराणां तथा तद्भाववृद्धिरित्युक्तप्रायम् । तदपरिज्ञानेऽप्यस्मात् तच्छुभसिद्धाविदमेव वचनं ज्ञापकम् । न चासिद्धमेतद्, अभिचारुकादौ तथेक्षणात् । सदौचित्त्यप्रवृत्त्या सर्वत्र प्रवर्तितव्यमित्यैदम्पर्यमस्य । तदेतत् सकलयोगबीजम् । 'वन्दनादिप्रत्ययम् (वंदणवत्तियाए)' इत्यादि न पठ्यते, अपि त्वन्यत्रोच्छ्वसितेन (अन्नत्थ ऊससिएणं) इत्यादि, तेषामविरतत्वात्, सामान्यप्रवृत्तेरित्थमेवोपकारदर्शनात्, वचनप्रामाण्यादिति व्याख्यातं 'सिद्धेभ्यः (सिद्धाणं०)' इत्यादि सूत्रम् । __(पं० -) 'तदपरिज्ञाने 'त्यादि = तैः वैयावृत्त्यकरादिभिरपरिज्ञानेऽपि स्वविषयकायोत्सर्गस्य, 'अस्मात्' = कायोत्सर्गात्, ('तच्छुभसिद्धौ ) तस्य कायोत्सर्गकर्तुः, शुभसिद्धा = विघ्नोपशमपुण्यबन्धादिसिद्धौ, 'इदमेव' = कायोत्सर्गप्रवर्तकं, 'वचनं', 'ज्ञापकं' = गमकम्, आप्तोपदिष्टत्वेनाव्यभिचारित्वात् । 'न च' = नैव, 'असिद्धं' = अप्रतिष्ठितं, प्रमाणान्तरेण 'एतद्' = अस्माच्छुभसिद्धिलक्षणं वस्तु, कुत इत्याह आभिचारुकादौ' दृष्टान्तम्मिण्याभिचारुके स्तोभन-स्तम्भन-मोहनादि फले कर्मणि, 'आदि'शब्दाच्छान्तिक पौष्टिकादिशुभफलक मणि च, 'तथेक्षणात्' = स्तोभनीयस्तम्भनीयादिभिरविज्ञानेऽपि आप्तोपदेशेन स्तोभनादिकर्मकर्तुरिष्टफलस्य स्तम्भनादेः प्रत्यक्षानुमानाभ्यां दर्शनात् । प्रयोगः, - यदाप्तोपदेशपूर्वकं कर्म तद्विषयेणाज्ञातमपि कर्तुरिष्टफलकारि भवति, यथा स्तोभनस्तम्भनादि कर्म, तथाचेदं वैयावृत्त्यकरादिविषय कायोत्सर्गकर्म (प्र० .... करणम्) इति । वेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मदिट्ठि-समाहिगराणं करेमि काउस्सग्गम्, (अन्नत्थ० ...) अर्थ :- वैयावच्च (सेवा) कारी, शांतिकर, एवं समाधिकारक सम्यग्दृष्टि संबन्धी कायोत्सर्ग मैं करता हूँ। इसकी व्याख्या - वेयावच्चगराणं' = जिनप्रवचन की सेवा रक्षा प्रभावना के लिए प्रवृत्तिशील, जैसे कि शासनदेवी अम्बिका, कुष्माण्डी आदि; 'संतिगराणं' = क्षुद्र उपद्रवों में शान्ति करने वाले 'सम्मद्दिट्ठि' = सामान्यतः अन्य सम्यग्दृष्टि जो कि 'समाहिगराणं' = स्व पर को समाधि करने वाले हैं। वृद्ध पुरुषों का संप्रदाय है कि उन सम्यग्दृष्टियों का वही समाधिकरत्व स्वरूप है। 'वेयावच्चगराणं' आदि पदों को षष्ठी विभक्ति लगी है; अत: अर्थ यह होता है कि उन वैयावच्चकारी आदि सम्बन्धी 'करेमि काउस्सग्गं' - मैं कायोत्सर्ग करता हूँ। अथवा षष्ठी विभक्ति सप्तमी के अर्थ में समझना; अब अर्थ होगा, - उनको विषय करने वाला अर्थात् उनका निमित्त करके कायोत्सर्ग करता हूँ। कायोत्सर्ग की विस्तृत विचारणा पूर्व के मुताबिक जानना, और ऊपर पढने की स्तुति की भी विचारणा वैसी ही समझना । किन्तु विशेष विवेचन इतना है कि वैयावच्चकारी आदि को प्रस्तुत कायोत्सर्ग द्वारा वैयावृत्त्य-शान्तिसमाधिकरण का भाव बढ़ता है, यह कथितप्राय है। प्र० - उनको 'मुझे उद्देश्य कर कायोत्सर्ग हो रहा है' ऐसा ज्ञानोपयोग बना ही रहता है ऐसा कोई नियम नहीं है; तब फिर संभव है इस कायोत्सर्ग का उन्हें ज्ञान न भी हो, तो ऐसी परिस्थिति में उन्हें भाववृद्धि कैसे हो सकती है? उ० - उन्हें स्वसंबन्धी कायोत्सर्ग का ज्ञान न होने पर भी उस कायोत्सर्ग से कायोत्सर्गकर्ता को विघ्नोपशम, शुभ कर्म बन्ध, इत्यादि प्राप्त होता है, जिस शुभ कर्म के बल पर उन वैयावच्चकारी आदि में वैयावच्चादि के भाव की वृद्धि होना युक्तियुक्त है। जीव के पुण्य बल से दूसरों को उनकी सेवा करने का भाव ३६० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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