________________
वेयावच्चगराणं०
(ल०-) एवमेतत्पठित्वो (प्र०
तो) पचितपुण्यसंभारा उचितेषूपयोगफलमेतदिति ज्ञापनार्थं पठन्ति 'वेयावच्चगराणं संतिगराणं सम्मद्दिट्ठिसमाहिगराणं करेमि काउस्सग्गमित्यादि यावद्वोसिरामि ।
व्याख्या पूर्ववत् ; नवरं वैयावृत्यकराणां = प्रवचनार्थं व्यापृतभावानां यथाम्बाकुष्माण्ड्यादीनां, शान्तिकराणां क्षुद्रोपद्रवेषु, सम्यग्दृष्टीनां सामान्येनान्येषां समाधिकराणां स्वपरयोस्तेषामेव स्वरूपमेतदेवैषामिति वृद्धसंप्रदायः । एतेषां संबन्धिनं, सप्तम्यर्थे वा षष्ठी, एतद्विषयम् = एतान् (प्र० एतान्वा) आश्रित्य । करोमि कायोत्सर्गमिति । कायोत्सर्गविस्तरः पूर्ववत् स्तुतिश्च ।
I
(पं०-)‘उचितेषूपयोगफलमेतदिति', 'उचितेषु'=लोकोत्तरकुशलपरिणामनिबन्धनतया योग्येष्वर्हदादिषु, ‘उपयोगफलं’=प्रणिधानप्रयोजनम्, 'एतत्'=चैत्यवन्दनम्, 'इति' = अस्यार्थस्य, 'ज्ञापनार्थमिति ।
नामकर्मादि पुण्य, एवं चिन्तामणि रत्नविशेष सुने जाते हैं वे अर्हद्-नमस्कार ही हैं, अर्थात् अर्हन्नमस्कार ही कल्पवृक्ष है, महामन्त्र है;" इत्यादि अपण्डित लोग कहते हैं, अर्थात् नमस्कार को सुने जाते कल्पवृक्षादि स्वरूप कहने वाले अज्ञान हैं; क्यों कि
(२) महाप्रभावी भी कल्पवृक्ष तो प्रार्थी की मात्र कल्पनानुसार फल देता है; और मन्त्र भी विषनिवारणादि करता तो है लेकिन समस्त दुःख स्वरूप विष को नहीं हटा सकता है;
(३) अब पुण्य भी स्वर्गादि समृद्धि दे सकता है लेकिन मोक्षसंपत्ति देने के लिए समर्थ नहीं है, वैसे ही चिन्तामणि भी मोक्षप्रदान में समर्थ नहीं। जब ऐसा है तब, हे अरिहंत नाथ ! आप के प्रति किये गये नमस्कार जो कि कल्पनातीत स्वरूप वाला अनन्त शाश्वत सुख देता है, सर्वदुःखविष का निवारक है, एवं मोक्षप्रदान में समर्थ है, वैसे नमस्कार को कल्पवृक्षादि के समान कैसे कहा जाए इत्यादि ।
'सिद्धाणं बुद्धाणं,' 'जो देवाण वि,' 'इक्को वि नमुक्कारो,' - तीन स्तुतियां अवश्य पढ़ी जाती है, जब कि कई एक लोग 'उज्जित०' इत्यादि और भी स्तुतियां पढ़ते हैं, किन्तु उनको पढ़ने की नियतता नहीं है, इसलिए यहां उनकी व्याख्या करने का प्रयत्न नहीं किया जाता ।
वेयावच्चगराणं०
इस प्रकार सिद्धाणं बुद्धाणं० ' सूत्र पढ़ कर, संगृहीत हुए पुण्यसमूह वाले साधक अब 'वेयावच्चगराणं० ' सूत्र पढ़ते हैं; वह यह सूचित करने के लिए कि यह चैत्यवन्दन सप्रयोजन है। चैत्यवन्दन का प्रयोजन है कि अरिहंत परमात्मा आदि जो कि लोकोत्तर कुशल परिणाम यानी अ-लौकिक शुभ आत्मपरिणति के असाधारण हेतु होने से * योग्य हैं, उनमें प्रणिधान लगाना अर्थात् एकाग्र मनःस्थापन करना । यह विशिष्ट एवं उत्तम प्रयोजन है, क्योंकि चैत्यवन्दन से फल रूप में योग्य परमात्मा आदि में मन का जो उपयोग याने प्रणिधान होता है, वह प्रणिधान विघ्नोपशम, विशिष्ट पुण्यबन्ध एवं कर्मक्षयोपशम का कारण है । चैत्यवन्दन में अब वैयावच्चकारी सम्यग्दृष्टि की भाववृद्धि हेतु जो अन्तिम कायोत्सर्ग किया जाता है इसमें भी लोकोत्तर शुभ भाव में कारणभूत योग्य आत्माओं का प्रणिधान ही किया जाता है। इससे यह सूचित होता है कि चैत्यवन्दन करने का प्रयोजन, अरिहंत आदि योग्य महानुभावों में मनः प्रणिधान करना, यह है । इसलिए इस क्रिया में उद्देश यही रखना कि 'मेरा मन कैसे अरिहंतादि में ठीक लग जाय !' अब सूत्र,
-
Jain Education International
३५९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org