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उ० - श्री वर्धमानस्वामी को किया गया एक भी नमस्कार संसारतारक है यह स्तुति-वचन विधिवाद ही है, अर्थवाद नहीं की जिससे वह निष्फल या प्रयत्नायोग्य हो । हां, विधिवाद होने से एक वीरनमस्कार में ही मोक्षसाधकता का विधान प्रतिपादित हुआ, फलतः फिर सम्यग्दर्शनादि व्यर्थ हो जाने की आपत्ति खड़ी होगी! लेकिन ऐसा नहीं है, - सम्यग्दर्शनादि व्यर्थ नहीं हैं ; क्यों कि निश्चयदृष्टि से यह संसारतारक एक नमस्कार, वस्तुतः देखा जाए तो सम्यग्दर्शनादि होने पर ही हो सकता है। यहां निश्चयदृष्टि से ऐसा इसलिए कहा कि द्रव्यनमस्कार अर्थात् मोक्ष का असाधक भावशून्य नमस्कार तो बिना सम्यग्दर्शनादि के भी हो सकता है। तात्त्विक नमस्कार में अति उच्च भाव की आवश्यकता है, और वह सम्यग्दर्शनादि से संपन्न आत्मा को ही हो सकता है। सुवर्णमुद्रादि से विभूति का दृष्टान्त :
सम्यग्दर्शनादि में से ऐसा तात्त्विक नमस्कार उत्पन्न होता है, यह समझने के लिए सुवर्णमुद्रादि से उत्पन्न विभूति का दृष्टान्त है। दोनों में समानता है, कारण यह है कि जिस प्रकार सुवर्णमुद्रादि ये वैभव के अवन्ध्य हेतु हैं, याने नियत कारण हैं, इसलिए वे ही वैभव रूप में परिणत होते हैं, वैभव स्वरूप बन जाते हैं, ठीक इसी प्रकार सम्यग्दर्शनादि भी साध्य तात्त्विक नमस्कार के अवश्य फलोत्पादक कारण हैं इसलिए वे बढ़ते बढ़ते तात्त्विक नमस्कार रूप से परिणत हो जाते हैं, तात्त्विक नमस्कार स्वरूप बन जाते हैं। ऐसा मत कहिए कि 'ठीक है ऐसा हो फिर श्री प्रस्तुत संसारतरण कैसे सिद्ध होगा?' क्यों कि संसारपारगमन एवं मोक्षप्राप्ति स्वरूप फल के प्रति भावनमस्कार याने तात्त्विक नमस्कार, जो कि भगवत्प्रतिपत्ति याने उत्कृष्ट जिनाज्ञापालन रूप है, वह अस्खलित कारण है, अतः इससे संसारोत्तार एवं मोक्ष अवश्य सिद्ध होता है। जब भावनमस्कार को पैदा करने द्वारा सम्यग्दर्शनादि मोक्षजनक हैं, तब वे निरर्थक कहां हुए? क्यों कि परंपरा से उनका भी फल मोक्ष है ही।
अर्थवाद में भी उपपादन :
विधिवादपक्ष का समर्थन किया गया। अब अर्थवाद-पक्ष में भी उपपादन इस प्रकार किया जाता है, - यह जो आक्षेप किया था कि 'अर्थवाद तो मात्र प्रशंसावचन होने से वह वास्तविकता का प्रतिपादक नहीं, अर्थात् स्तुति उक्त फल की वस्तुतः जनक नहीं; और दूसरे किसी फल की जनक हो तब प्रयत्न तादृशफलजनक अन्य किसी यक्षस्तुति आदि में ही किया जाए, इस स्तुति में ही क्यों ?' - यह आक्षेप उचित नहीं, क्यों कि सभी स्तुति समान ही फल की उत्पादक होती है ऐसा नियम नहीं है; और देवों की अपेक्षा देवाधिदेव त्रिलोकबन्धु वीतराग सर्वज्ञ श्री महावीरादि तीर्थंकर भगवान की स्तुति विशिष्ट फल पैदा करती है इसलिए इसी में प्रयत्न करना चाहिए । - 'चाहे सराग देव की स्तुति की जाए या वीतराग देव की, लेकिन प्रयत्न, श्रम आयास तो दोनों स्तुतिओं में समान ही है' तब फिर इतने ही प्रयत्न को वीतराग स्तुति से विशिष्टफलदायी क्यों न बनाया जाए?
प्र० - जब प्रयत्न तुल्य है तब फल में तारतम्य कैसे?
उ० - विषय के भेद से फल में तारतम्य होता है। देखते हैं कि बबूल का वृक्ष और कल्पवृक्ष - इन दोनों के प्रति प्रयत्न समान ही किया जाए लेकिन प्रयत्न के फल में बड़ा अन्तर पड़ता है। बबूल के आगे प्रार्थना की जाए किन्तु फल कुछ नहीं जब कि कल्पवृक्ष के आगे प्रार्थना करें तो इच्छित फल प्राप्त होता है। महावीर भगवान के प्रति नमस्कार करने में नमस्कार का विषय परमात्मा है जो कि उपमातीत है; जगत में किसी विषय की उपमा परमात्मा को नहीं लगाई जा सकती। जैसे कि कहा गया है, - (१) "जगत में इष्टफल के दाता रूप से जो कल्पवृक्ष, हरिणैगमेषी देव आदि का उच्च मन्त्र, तीर्थकर -
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