Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 378
________________ (ल० - स्त्रीणामशुभवदुत्कृष्टशुभध्यानमपि कथम् ? ) तद्वत्प्रकृष्टशुभध्यानाभाव इति चेत् ? न, तेन तस्य प्रतिबन्धाभावात्, तत्फलवदितरफलभावेनानिष्टप्रसङ्गात् । (पं० -) 'तद्वत्' = प्रकृतरौद्रध्यानस्येव 'प्रकृष्टस्य' = मोक्षहेतोः 'शुभध्यानस्य' शुक्लरूपस्य 'अभाव', 'इति' = एवं, 'चेत्' अभ्युपगमो भवतः, अस्य परिहारमाह 'न' = नैवैतत्परोक्तं, कुत इत्याह 'तेन' = प्रकृतरौद्रध्यानेन 'तस्य' = प्रकृतशुभध्यानस्य, 'प्रतिबन्धाभावाद्' = अविनाभावायोगात् तत्प्रतिबन्धसिद्धौहि व्यापककारणयोवृक्षत्वधूमध्वजयोनिवृत्तौ शिशपाधूमनिवृत्तिवत् प्रकृतरौद्रध्यानाभावे प्रकृष्टशुभध्यानाभाव उपन्यसितुं युक्तः । न चास्ति प्रतिबन्धः, कुत इत्याह 'तत्फलवत्' तस्य प्रकृष्टशुभध्यानस्य फलं मुक्तिगमनं, तस्येव, 'इतरफलभावेन' प्रकृतरौद्रध्यानफलस्य सप्तमनरकगमनलक्षणस्य भावेन = युगपत्सत्तया, 'अनिष्टप्रसङ्गात्' = परमपुरषार्थोपघातरूपस्यानिष्टस्य प्रसङ्गात् । प्रतिबन्धसिद्धौ हि शिंशपात्वे इव वृक्षत्वं, धूम इव वा धूमध्वजः, प्रकृष्टशुभध्यानभावे स्वफलकारिण्यवश्यंभावी प्रकृतरौद्रध्यानभावः स्वकार्यकारी, स्वकार्यकारित्वाद्वस्तुनः, स्वकार्यमाक्षिपत् कथमिव परमपुरुषार्थं नोपहन्यादिति । (ल०-) अक्रूरमतिरपि रतिलालसाऽसुन्दरैव, तदपोहायाह - 'नो न उपशान्तमोहा', काचिदुपशान्तमोहापि संभवति, तथादर्शनात् । उपशान्तमोहापि अशुद्धाचारा गर्हिता, तत्प्रतिक्षेपायाह - 'नो न शुद्धाचारा' काचित् (प्र० ... कदाचित्) शुद्धाचारापि भवति, औचित्येन परापकरणवर्जना (प्र० ... परोपकरणार्जना) द्याचारदर्शनात् । शुद्धाचारापि अशुद्धबोन्दिरसाध्वी तदपनोदायाह - 'नो अशुद्धबोन्दिः'; काचित् शुद्धतनुरपि भवति, प्राक्कानुवेधतः (प्र० ... ०नुरोधतः) संसञ्जनाद्यशुद्धयदर्शनात् कक्षास्तनादिदेशेषु । शुद्धबोन्दिरपि व्यवसायवज्जिता निन्दितैव, तन्निरासायाह - 'नो व्यवसायवज्जिता'; काचित् परलोकव्यवसायिनी, शास्त्रात् (प्र० ... शास्त्रादौ) तत्प्रवृत्तिदर्शनात् । (ल० -) सव्यवसायाप्यपूर्वकरणविरोधिनी विरोधिन्येव, तत्प्रतिषेधमाह 'नो अपूर्वकरणविरोधिनी', अपूर्वकरणसंभवस्य स्त्रीजातावपि प्रतिपादितत्वात् । अपूर्वकरणवत्यपि नवगुणस्थानरहिता नेष्टसिद्धये (इति) इष्टसिद्ध्यर्थमाह 'नो नवगुणस्थानरहिता', तत्संभवस्य तस्याः प्रतिपादितत्वात् । नवगुणस्थानसङ्गतापि लब्ध्ययोग्या अकारणमधिकृतविधेः, इत्येतत्प्रतिक्षेपायाह - 'नायोग्या लब्धेः', आर्मर्पोषध्यादिरूपायाः कालौचित्येनेदानीमपि दर्शनात्। वहां वहां अग्नि अवश्य है, तब कह सकते हैं कि अग्नि अगर न हो तो धुंआ नहीं ही होगा। प्रस्तुत में ऐसी कोई व्याप्ति नहीं है कि जहां जहां उत्कृष्ट शुभध्यान है वहां वहां ऐसा तीव्र रौद्रध्यान होता ही है। कारण यह है कि, यदि दोनों ही है तब उत्कृष्ट शुभध्यान के फल मोक्षगमन की तरह प्रस्तुत रौद्रध्यान का फल सप्तमनरकगमन भी साथ ही साथ प्राप्त होगा और वह तो अनिष्ट है; क्यों कि नरकगमन तो परम पुरुषार्थ मोक्षगमन का घातक होने से नरकगमन के साथ मोक्ष होना किसी को इष्ट नहीं । अगर व्याप्ति सिद्ध हो तब तो जिस प्रकार शीशमपन होने पर पेड़पन, अथवा धुंआ होने पर आग, इत्यादि अवश्य होते ही हैं इसी प्रकार व्याप्य उत्कृष्ट शुभध्यान होने पर व्यापक प्रस्तुत रौद्रध्यान भी होना ही चाहिए; और वे दोनों ही अपना अपना कार्य करेंगे ही; कारण, वस्तु अपना कार्य करती ही है; तब तीव्र रौद्रध्यानका का कार्य भी अवश्य होगा। फलतः रौद्रध्यान, अपने कार्य नरकगमन को आकर्षित करता हुआ, मोक्ष प्राप्ति का विघातक क्यों न हो? इसलिए फलित होता है कि जहां मोक्ष प्रापक शुल्कध्यान की योग्यता है वहां सप्तमनरक प्रापक रौद्रध्यान की योग्यता होने का कोई नियम नहीं है, अतः स्त्रियां सप्तम नरकगमन के योग्य न होने पर भी शुक्लध्यान के योग्य हो सकती हैं। ३५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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