Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 376
________________ ( ल० - स्त्रीमुक्तौ यापनीयतन्त्रप्रमाणम् :- ) यथोक्तं यापनीयतन्त्रे 'णो खलु इत्थी अजीवो अजीवे ), ण यावि अभव्वा, ण यावि दंसणविरोहिणी ( प्र० ... विराहिणी ), णो अमाणुसा, अणारिउप्पत्ती, णो असंखेज्जाउया, णो अइकूरमई, णो ण उवसन्तमोहा, णो ण सुद्धाचारा, णो असुद्धबोंदी, णो ववसायवज्जिया, णो अपुव्वकरणविरोहिणी ( प्र० विराहिणी ), णो णवगुणठाणरहिया, णो अजोग्गा लद्धीए, णो अकल्लाणभायणं ति कहं न उत्तमधम्मसाहिग त्ति" । (प्र० तत्र न खलु' इति 'नैव स्त्री अजीवो वर्तते किन्तु जीव एव, जीवस्य चोत्तमधर्म्मसाधकत्वाविरोधस्तथादर्शनात् । न जीवोऽपि सर्व्व उत्तमधर्म्मसाधको भवति, अभव्येन व्यभिचारात्, तद्व्योपोहायाह 'न चाप्यभव्या' जातिप्रतिषेधोऽयम् । यद्यपि काचिदभव्या तथापि सर्व्वैवाभव्या न भवति, संसारनिर्वेदनिर्वाणधर्म्माद्वेषशुश्रूषादिदर्शनात् । भव्योऽपि कश्चिद्दर्शनविरोधी यो न सेत्स्यति तन्निरासायाह 'नो दर्शनविरोधिनी', दर्शनमिह सम्यग्दर्शनं परिगृह्यते तत्त्वार्थ श्रद्धानरूपं, न तद्विरोधिन्येव, आस्तिक्यादिदर्शनात् । कि धर्म पुरुषप्रधान अर्थात् पुरुषों के मुख्य स्थान वाला है यह सूचित करना है। 'नारी' ग्रहण से यह बतलाना है कि स्त्रियों के भी उस संसार का अन्त हो सकता है 1 स्त्रीमुक्ति में यापनीयतन्त्र का प्रमाण : जैसे कि यापनीयशास्त्र में कहा गया है कि "स्त्री कोई अजीव तो है ही नहीं, फिर वह उत्तम धर्ममोक्षकारक चारित्रधर्म की साधक क्यों न हो सके ? वैसे ही वह अभव्य भी नहीं है, दर्शन-विरोधी नहीं है, अमनुष्य नहीं है, अनार्य देशोत्पन्न नहीं है, असंख्यवर्ष की आयु वाली नहीं है, अति क्रूर मति वाली नहीं है, मोह उपशान्त हो ही न सके ऐसी नहीं, वह शुद्ध आचार से शून्य नहीं है, अशुद्ध शरीर वाली नहीं है, परलोकहितकर प्रवृत्ति से रहित नहीं है, अपूर्वकरण की विरोधी नहीं है, नौ गुणस्थानक (छठवें से चौदहवे तक के गुणस्थानक) से रहित नहीं है, लब्धि के अयोग्य नहीं है, अकल्याण की ही पात्र है ऐसा भी नहीं, फिर उत्तम धर्म की साधक क्यों न हो सके ?" इस शास्त्रकथन का विवेचन :- • स्त्री अजीव है ऐसा नहीं किन्तु जीव ही है, और जीव में उत्तमधर्म की साधकता होना कोई विरुद्ध नहीं है, क्योंकि ऐसा देखा जाता है कि जीव उत्तम धर्म का साधक होता है। तब, पुरुषजीव जब साधक हो सकता है तो स्त्रीजीव भी साधक होने में क्या विरोध है ? • हां, जीव भी सभी ही उत्तम धर्म के साधक नहीं होते हैं क्योंकि उत्तमधर्मसाधकता का अभव्य जीव में व्यभिचार है, अर्थात् अभव्य तो जीव होता हुआ भी उत्तमधर्मसाधक नहीं, इसलिए स्त्री में अगर अभव्यत्व ही हो तब वह उत्तमधर्मसाधक न बन सके । किन्तु ऐसा नहीं है, अत: स्त्री में एकान्ततः अभव्यत्व ही होने का निषेध करने के लिए कहते हैं कि स्त्री अभव्यजाति की ही नहीं । अलबत्ता कोई स्त्री अभव्य भी होती है, लेकिन सभी स्त्री अभव्य ही होती हैं ऐसा नहीं, कोई भव्य भी होती हैं । कारण यह है कि स्त्री में भी भववैराग्य, मोक्षोपयोगी धर्म के प्रति अद्वेष, उस धर्मको सुनने की इच्छा, धर्मबोध इत्यादि मात्र भव्य के सुलभ गुण दिखाई पड़ते हैं। अगर वह अभव्य ही होती तो यह संभवित ही नहीं । • भव्य भी कोई जीव दर्शनविरोधी होता है जिससे वह मोक्ष नहीं पा सकता, लेकिन स्त्री में एकान्ततः ऐसी दर्शनविरोधीता ही है; इस बात का निषेध करने के लिए कहा गया कि वह दर्शनविरोधी ही है ऐसा नहीं । Jain Education International ३५१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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