Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ (ल० - इक्को वि नमुक्कारो०' - ) इत्थं स्तुति कृत्वा पुनः परोपकारायाऽत्मभाववृघ्यै फलप्रदर्शनपरमिदं पठति पठन्ति वा, - 'एक्को वि णमोकारो' इत्यादि । ('एक्को वि णमोक्कारो जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥३॥') अस्य व्याख्या, - ‘एकोऽपि नमस्कारः' तिष्ठन्तु बहवः, 'जिनवरवृषभाय' वर्द्धमानाय यत्नात् क्रियमाणः सन्, किम् ? संसरणं 'संसारः' तिर्यग्नरनारकामरभवानुभवलक्षणः स एव भवस्थितिकायस्थितिभ्यामनेकधावस्थानेनालब्धपारत्वात् 'सागर' इव संसारसागरः, तस्मात् 'तारयति' = अपनयतीत्यर्थः, नरं व नारिं वा' पुरुषं वा स्त्रियं वा । पुरुषग्रहणं पुरुषोत्तमधर्मप्रतिपादनार्थं, स्त्रीग्रहणं तासामपि तद्भव एव संसारक्षयो भवतीति ज्ञापनार्थम् । 'इक्को वि०' गाथा की व्याख्या : इस प्रकार एक या अनेक साधक श्रीमहावीर प्रभु की स्तुति नमस्कार करके नमस्कार का फल दिखलाने वाली इस ‘एक्को वि०' गाथा पढते हैं । गाथा से फल का प्रदर्शन परोपकार के लिए किया जाता है, परोपकार यह कि यह पढ कर नमस्कार में नमस्कर्ता जीव के भाव की वृद्धि हो । एक भी नमस्कार का इतना उत्कृष्ट फल है यह याद करने से भावी नमस्कार में भावोल्लास की वृद्धि और किये गए नमस्कार की अनुमोदना के भाव में वृद्धि होना अनुभव सिद्ध है। गाथा यह है, - 'इक्को वि नमुक्कारो जिणवर वसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ तारेइ नरं व नारिं वा ॥३॥' अर्थ :- जिनवर में वृषभ (उत्तम) ऐसे वर्द्धमान स्वामी को (किया गया) एक भी नमस्कार मनुष्य या स्त्री को संसारसागर से पार करता है। अर्थात्, ‘इक्को वि' = एक भी, बहुत की तो क्या बात ? 'नमुक्कारो' = नमस्कार, 'जिणवरवसहस्स' = जिनवर याने अवधिजिन आदि में उत्तम ऐसे केवली जिन, उनमें वृषभ, श्रेष्ठ यह जिनववृषभ, ऐसे 'वद्धमाणसामिस्स' = वर्द्धमानस्वामी के प्रति विशिष्ट प्रयत्न पूर्वक किया जाता (एक भी नमस्कार) पुरुष या स्त्री को संसार सागर से पार करता है। भवस्थिति - कायस्थिति : संसार अर्थात् संसरण; नारक - तिर्यंच - मनुष्य - देव भव में परिभ्रमण यह संसरण है, उसे संसार कहते हैं। वही समुद्र जैसा है, क्यों कि वह अनेक रूप' से अवस्थित होने से उसका पार नहीं पाया जाता है। यह 'अनेक रूप' भवस्थिति और कायस्थिति की अपेक्षा कहा जाता है। संसार में भवस्थिति याने आयुष्य के बंधन अंतर्मुहूर्त से लेकर तेत्तीस सागरोपम तक के अनेक प्रकार भोगने पड़ते हैं; एवं कायस्थिति याने वैसी-न वैसी पृथ्वीकायादि काया में लगातार जघन्यतः एक वार से लेकर उत्कृष्टतः अनंत काय (निगोद, साधारण वनस्पतिकाय जहां एक शरीर में अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं उस) में अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल तक अनन्त वार जन्ममरण करने पड़ते हैं। श्री वर्धमान स्वामी के प्रति किया गया एक भी सामर्थ्ययोग का नमस्कार इन अनेकविध भवस्थिति - कायस्थितिमय दुस्तर भी संसारसागर से नर नारी को उद्धरने वाला होता है। 'नर' का प्रथम ग्रहण इसलिए किया ३५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410