Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

View full book text
Previous | Next

Page 377
________________ (ल० - ) दर्शनाविरोधिन्यपि अमानुषी नेष्यत एव, तत्प्रतिषेधायाह'नो अमानुषी', मनुष्यजातौ भावात् विशिष्टकरचरणोरुग्रीवाद्यवयवसन्निवेशदर्शनात् । मानुष्यप्यनार्योत्पत्तिरनिष्टा, तदपनोदायाह 'नो अनार्योत्पत्तिः' आर्येष्वप्युत्पत्तेः, तथादर्शनात् । आर्योत्पत्तिरप्यसंख्येयायुर्नाधिकृतसाधनायेत्येतदधिकृत्याह 'नो असंख्येयायुः सर्वैव, संख्येयायुर्युक्ताया अपि भावात्, तथादर्शनात् । संख्येयायुरपि अतिक्रूरमतिः प्रतिषिद्धा तन्निराचिकीर्षयाह 'नातिक्रूरमतिः', सप्तमनरकायुर्निबन्धनरौद्रध्यानाभावात् । __ (पं० -) सप्तमे'त्यादि, सप्तमनरकेऽतिक्लिष्टसत्त्वस्थाने आयुषो निबन्धनस्य रौद्रध्यानस्य तीव्रसंक्लेशरूपस्याभावात् स्त्रीणां, 'षष्ठी च स्त्रियः' इतिवचनात् । 'दर्शन' शब्द से यहां सम्यग्दर्शन याने तत्त्वार्थ श्रद्धान ग्राह्य है, उसका स्त्रीत्व के साथ कोई विरोध नहीं है, क्यों कि कई स्त्रीयों में भी सम्यग्दर्शन का लक्षण आस्तिक्य अर्थात् जिनवचन पर निःशङ्क श्रद्धा दिखाई देती है। • सम्यग्दर्शन से विरोध न रखती हुई भी वह अगर मानवीय स्त्री न हो तब उत्तमधर्मसाधक नहीं हो सकती है इसलिए अमानवीपन का निषेध करने के लिए कहते हैं कि 'नो अमानुषी' - वह मानवीय स्त्री नहीं है ऐसा नहीं, क्योंकि मनुष्यजाति में उत्पन्न हुई है। यह मनुष्ययोग्य विशिष्ट अवयव जैसे कि हाथ, पैर, उरु, ग्रीव आदि दिखाई पड़ने से सिद्ध है। . मानवीय स्त्री भी अगर अनार्य देश-कल में उत्पन्न हुई हो तो वह उत्तम धर्म की साधना के लिए योग्य नहीं, इसलिए उसके निषेधार्थ कहते हैं 'न अनार्योत्पत्तिः', क्योंकि आर्य देश - कुलों में स्त्री की उत्पत्ति है, ऐसा देखने में आता है। • आर्य में जन्म होते हुए भी असंख्यात वर्ष की आयु वाली स्त्री उत्तमधर्मसाधना के लिए समर्थ नहीं है, अत: उसके सम्बन्ध में कहते हैं कि वह असंख्येय वर्ष की आयुवाली स्त्री प्रस्तुत में गृहीत नहीं है, क्योंकि उत्तम धर्मसाधक आर्य स्त्री संख्यात वर्ष के उम्र वाली होती है ऐसा देखते हैं। . संख्यात वर्ष वाली भी वह अगर अतिक्रूर अध्यवसाय से युक्त हो तब अयोग्य है। प्रस्तुत में वैसा नहीं है यह 'न अतिक्रूरमतिः' शब्द से कहा गया। अति क्रूर अध्यवसाय न होने में कारण यह है कि सातवीं नरक, - जो कि अति संक्लेश वाले जीवों का स्थान है, - उसके आयुष्यकर्म का बन्ध कराने वाला जो तीव्र रागद्वेषमय संक्लेशभरा रौद्रध्यान, वह उसे होता नहीं है। यह वस्तु शास्त्र से प्रमाणित है, क्योंकि शास्त्र बतलाता है कि 'षष्ठी च स्त्रियः' अर्थात् स्त्रियाँ उत्कृष्टतः छठवी नरक तक जा सकती हैं। इससे सिद्ध होता है कि उन्हें सप्तमनरकायु के योग्य तीव्र रौद्रध्यान नहीं हो सकता। अति तीव्र रौद्रध्यान और उत्कृष्ट शुक्लध्यान की व्याप्ति नहीं : प्र० - तब तो प्रस्तुत रौद्रध्यान की भांति मोक्षदायी उत्कृष्ट शुभध्यान-शुक्लध्यान भी नहीं हो सकेगा, फिर उसे सर्वोत्तम धर्मसाधना एवं मुक्ति कैसे? उ० - ऐसा मत कहिए । उत्कृष्ट शुभध्यान नहीं हो सके ऐसा नहीं है, क्यों कि प्रस्तुत रौद्रध्यान के साथ उसकी कोई व्याप्ति नहीं है। व्याप्ति सिद्ध हो तब प्रस्तुत रौद्रध्यान के अभाव में उत्कृष्ट शुभध्यान के अभाव का उपन्यास करना योग्य है। उदाहरणार्थ वस्तु के साथ व्यापक या कारण की व्याप्ति होती है, पेड़पन यह शीशमपन का व्यापक धर्म है; तो दोनों की व्याप्ति है, - 'जहां जहां शीशमपन है वहां वहां पेड़पन अवश्य है'; तब व्यापक धर्म पेड़पन के अभाव में शीशमपन के अभाव का उपन्यास किया जा सकता हैं, कह सकते है कि अगर पेड ही नहीं है तब शीशम नहीं हो सकता है। वैसे ही, अग्नि धुंआ का कारण है, उभय की व्याप्ति है, जहां जहां धुंआ है ३५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410