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(ल० - आपत्तिपरिहार: प्रवाहतोऽनादिता-)न, अनादित्वेऽपि पुरुषव्यापाराभावे वचनानुपपत्त्या तथात्वासिद्धेः । न चावचनपूर्वकत्वं कस्यचित्, तदादित्वेन तदनादित्वविरोधादिति । बीजाङ्कुरवदेतत् ततश्चानादित्वेऽपि प्रवाहतः सर्वज्ञाभूतभवनवद् वक्तृव्यापारपूर्वकत्वमेवाखिलवचनस्येति ।
(पं० -) परपक्षमाशङ्क्योत्तरमाह 'न' = नैव, एतत् परोक्तम् । अत्र हेतुमाह 'अनादित्वेऽपि' = अविद्यमानाऽऽदिभावे, वचनस्य, 'पुरुषव्यापाराभावे' = वचनप्रवर्तकताल्वादिव्यापाराभावे, 'वचनानुपपत्त्या' = उक्तनिरुक्तवचनायोगेन, तथात्वासिद्धेः'। पक्षान्तरमपि निरस्यन्नाह नच' = नैव, अवचनपूर्वकत्वं' परोपन्यस्तं, 'कस्यचिद्' भगवतः । कुत इत्याह 'तदादित्वेन' = वचनपूर्वकत्वेन, 'तदनादित्वविरोधात्' 'तस्य= भगवतो, अनादित्वस्य = अवचनपूर्वकत्वाक्षिप्तस्य, विरोधात् = निराकरणादिति । परमार्थमाह बीजाङ्कुरवदेतत्' = यथा बीजादङ्कुरोऽङ्कुरान बीजं तथा वचनादर्हनहतश्च वचनं प्रवर्तत इति । प्रकृतसिद्धिमाह ततश्च' = बीजाङ्कुरदृष्टान्ताच्च, 'अनादित्वेऽपि' वचनस्य, 'प्रवाहतः = परंपरामपेक्ष्य, 'सर्वज्ञाभूतभवनवत्', सर्वज्ञस्य ऋषभादिव्यक्तिरूपस्य प्रागभूतस्य भवनमिव, 'वक्तव्यापारपूर्वकत्वमेवाखिलवचनस्य' लौकिकादिभेदभिन्नस्येति। पुरुष प्रमाणसिद्ध नहीं ही है इसी लिए तो आप अपौरुषेय वचन की कल्पना अतीन्द्रिय द्रष्टा न मानने वालों की ही सार्थक हो सकती है। उनके शास्त्र में कहा गया है कि 'अतीन्द्रिय पदार्थो' को साक्षात् देखने वाला कोई है ही नहीं । दरअसल तो जो नित्य वेदवचन से तत्त्व बोध करता है, वही प्रामाणिक ज्ञाता द्रष्टा है, वही ब्रह्मदर्शन कर सकता है। इसलिए अदृश्य पिशाचादि वक्ता कोई नहीं है ऐसा निर्णय कराने वाला आप्त अतीन्द्रियद्रष्टा अगर मानना ही है, तब फिर वचन अपौरुषेय है वह कहना फिजूल है, तुच्छ है। उस आप्त से ही अतीन्द्रिय पदार्थों का बोध मिल जाएगा।
जैनमत में अपौरुषेय वचन होने का आक्षेप :
अब अपौरुषेय वेदवचन मानने वाला आक्षेप करता है कि "केवल मुझे क्या, पौरुषेयवचनवादी आप जैनमतानुयायी को भी, परमार्थ से याने शुद्ध तात्पर्य से देखा जाए तो, अपौरुषेय ही वचन मान्य है, न कि पौरुषेय । कारण, समस्त ऋषभदेवादि सर्वज्ञ तीर्थंकर वचनपूर्वक ही मान्य हैं, अर्थात् वचन की आराधना से वे तीर्थंकर होते हैं, ऐसा माना गया है। यह इसलिए कि जैन शास्त्र कहता है 'तप्पुब्विया अरहया,' अर्थात् अरिहंतपन वचनपूर्वक ही होता है, - जब कभी कोई अरिहंत होता है वह अरिहंतपन का उपार्जन पूर्व में विद्यमान प्रवचन की उपासना करके ही करता है। शायद आप कहें 'ठीक है फिर भी अरिहंत का प्रवाह अनादि काल से चला आता है, तब उनसे उक्त वचन पौरुषेय क्यों नहीं ? अपौरुषेय कहां से हुआ?' लेकिन देखिये अरिहंत अनादि काल से होते हुए भी वचन भी तो 'अरहया तप्पुब्विया' के हिसाब से अनादि होना सिद्ध होता है, फलतः वह अपौरुषेय साबित होता है। इसे अगर निषेध करें तो बाधक खड़ा होता है, अर्थात् अगर वचन को अनादि अपौरुषेय न माना जाए, तब तो यह आया कि किसी एक अरिहंत को पहले पहल वचन के प्रवर्तक मानना पड़ेगा। हां, तब ऐसा भी हो यह नहीं कह सकते हैं, क्योंकि वह आद्यवचन के प्रवर्तक अरिहंत स्वयं वचनपूर्वक नहीं हुए; और यह अवचनपूर्वकता 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यादि आगम से विरुद्ध है; क्यों कि अवचनपूर्वक अर्थात् नित्य; वह अगर सत् है तब न्याय से कारणपूर्वक नहीं, 'सद् अकारणवत् नित्यम्' यह न्याय है, और यहां आगम कहता है कि चाहे अरिहंत का या दूसरों का मोक्ष हो, वह जीवन्मोक्ष-विदेहमोक्ष-सम्यग्दर्शनादि कारणपूर्वक ही होता है। आद्य वचन के प्रवर्तक अरिहंत को खुद के लिए पूर्ववचन मिला नहीं तब वचनश्रद्धा स्वरूप सम्यग्दर्शन इत्यादि
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