Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 364
________________ (ल० - त्रिकोटिवाक्यानि - ) (१) 'स्वर्गकेवलार्थिना तपोध्यानादि कर्त्तव्यम्, सर्वे जीवा न हन्तव्या 'इतिवचनात् ; (२) 'समितिगुप्तिशुद्धा क्रिया असपत्नो योग 'इतिवचनात् ; ( ३ ) 'उत्पादविगमध्रौव्ययुक्तं सत्, एकद्रव्यमनन्तपर्यायमर्थ' इतिवचनादिति । कार्योत्सर्गप्रपञ्चः प्राग्वत्, तथैव च स्तुतिः, यदि परं श्रुतस्य, समानजातीयबृंहकत्वात् । अनुभवसिद्धमेतत् तज्ज्ञानां; चलति समाधिरन्यथेति प्रकटम् । ऐतिह्यं चैतदेवमतो न बाधनीयम् । इति व्याख्यातं 'पुष्करवरद्वीपार्द्धे इत्यादिसूत्रम् ॥ (पं० -) अमुमेवाविरोधं त्रिकोटिपरिशुद्धिलक्षणं द्वाभ्यां वचनाभ्यां दर्शयति 'स्वर्गे 'त्यादिना; सुगमं चैतत्, किन्तु स्वर्ग्यार्थिना तपोदेवतापूजनादि, केवलार्थिना तु ध्यानाध्ययनादि कर्त्तव्यम् । 'असपत्नो योगः 'इति, .'असपत्नः' = परस्पराविरोधी, स्वस्वकालानुष्ठानाद्, 'योगः ' = स्वाध्यायादिसमाचार: । 'ऐतिह्यंचैतदि 'ति संप्रदायश्चायं यदुत तृतीया स्तुतिः श्रुतस्येति । = ॥ इति श्रीमुनिचन्द्रसूरिविरचितायां ललितविस्तरापञ्जिकायां श्रुतस्तवः समाप्तः ॥ 'सुयस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं' से लेकर 'वंदणवत्तियाए.... इत्यादि 'वोसिरामि' तक एक या अनेक साधक पढते हैं। 'धम्मुत्तरं वड्ढउ' के बाद यह पढने का रहस्य यह है कि क्रिया अगर प्रणिधान पूर्वक हो तो सफल होती है, इसलिए यहां श्रुतवृद्धि का प्रणिधान करके श्रुत-कार्योत्सर्ग किया जाता है। 'करेमि काउस्सग्गं.... वोसिरामि' की व्याख्या पूर्व के मुताबिक है; किन्तु 'सुयस्स भगवओ' की व्याख्या इस प्रकार है: - 'सुयस्स' अर्थात् श्रुत का, प्रवचन का । प्रवचन यानी अर्हत्प्रवचन, वह प्राथमिक आवश्यकसूत्र के प्रथमाध्ययन 'करेमि भंते सामाइयं....' इस सामायिक सूत्र से ले कर 'चौदह पूर्व' नामक आगम पर्यन्त स्वरूप है। 'भगवओ' का अर्थ है समग्र ऐश्वर्यादियुक्त | श्रुत = अर्हत्प्रवचन तीन रूप से सिद्ध है : : अर्हत्प्रवचन समग्र ऐश्वर्यादियुक्त होने का कारण यह है कि वह इन तीन प्रकारों से प्रमाणित है, - १. फलावश्यंभाविता अर्थात् फल का अवश्य होना, २ . प्रतिष्ठितता और ३. त्रिकोटि - परिशुद्धता । ललितविस्तराकार महर्षि इन तीन प्रकार की प्रमाणितताओं को क्रमशः इन तीन वाक्यों से प्रदर्शित करते हैं, : • ( १ ) ' न ह्यतो विधिप्रवृत्तः फलेन वञ्च्यते' - अर्थात् अर्हत्प्रवचन के आदेशानुसार विधिपूर्वक प्रवृत्ति करने वाला पुरुष प्रवचनोक्त फल से वञ्चित नहीं होता है, फल अवश्य पाता है। प्रवचनोक्त प्रवृत्तियों से तदुक्त फल का अचूक होना, यह 'सिद्ध प्रवचन' का सूचक है। • ( २ ) ' व्याप्ताश्च सर्वे प्रवादा एतेन', अर्थात् विश्व के समस्त युक्तियुक्त मत अर्हत्प्रवचन से ही व्याप्त हैं । कारण, अन्य सभी मत एकान्तवादी हैं; इनमें से किसी भी मत से और मत व्याप्त नहीं है, क्यों कि एकपक्षीय मान्यता करने से दूसरे विरुद्धपक्षीय मान्यता वाले 'मत को वह व्याप' नहीं सकता; उदाहरणार्थ, एकान्त-क्षणिकवादी बौद्धमत, एकान्त नित्य आत्मादिवादी न्यायमत पर कैसे व्याप्त हो सके ? लेकिन अर्हत्प्रवचन अनेकांतवादी होने से कथंचित् क्षणिकता एवं कथंचित् नित्यता आदि धर्मों का स्वीकार करने वाला होने से समस्त एकान्तवादी दर्शनों के युक्तियुक्त नयसंमत मतों को व्याप सकता है। तात्पर्य सर्व मत जैन मत के अंशभूत है ऐसा वह प्रतिष्ठित है । यह व्यापकता प्रतिष्ठितता भी 'सिद्ध प्रवचन' की ज्ञापक है। Jain Education International ३३९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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