Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 357
________________ (ल० - बीजारोपणसमा प्रार्थना) शुभमेतदध्यवसानमत्यर्थं, शालिबीजारोपणवच्छालिहेतुः । दृष्टा ह्येवं पौन:पुन्येन तद्वृद्धिः एवमिहाप्यत इष्टवृद्धि (प्र०...सिद्धि) रिति । एवं विवेकग्रहणमत्र जलम् । . (पं० -) एतद्भावनायैवाह 'शुभं' = प्रशस्तम्, 'एतत्' पुनः पुनः श्रुतधर्मवृद्ध्याशंसालक्षणम्, 'अध्यवसानं' = परिणामः, 'अत्यर्थम्' = अतीव, कीदृगित्याह - 'शालिबीजारोपणवत्' = शालिबीजस्य पुनः पुनः निक्षेपणमिव, 'शालिहेतुः' = शालिफलनिमित्तम् । एतदेव भावयति - 'दृष्टा' = उपलब्धा, 'हि' = यस्माद्, ‘एवं' = श्रुतधर्मवृद्धिप्रार्थनान्यायेन, ‘पौनःपुन्येन' शालिबीजारोपणस्य वृद्धः, तवृद्धिः' = शालिवृद्धिः । 'एवं' = शालिवृद्धिप्रकारेण, 'इहापि' श्रुतस्तवे, ‘अतः' = आशंसा पौन:पुन्याद्, 'इष्टवृद्धिः ' = श्रुतवृद्धिरिति । अथ शालिबीजारोपणदृष्टान्ताक्षिप्तं सहकारिकारणं जलमपि प्रतिपादयन्नाह - ‘एवम्' 'अनन्तरोक्तप्रकारेण 'विवेकग्रहणं,' विवेकेन = सम्यगर्थविचारेण (प्र० .... विधारणविचारेण), ग्रहणं = स्वीकारः श्रुतस्य, विवेकस्य वा ग्रहणं, तत्किमित्याह 'अत्र' = श्रुतशालिवृद्धौ, 'जलम्' = अम्भः । (ल० - विवेकमहत्त्वम् - ) अतिगम्भीरोदार एष आशयः । अत एव संवेगामृतास्वादनम् । नाविज्ञातगुणे चिन्तामणौ यत्नः । (पं० -) अथ विवेक मेव स्तुवन्नाह - 'अतिगम्भीरोदारः', अतिगम्भीरः = प्रभूतश्रुतावरणक्षयोपशमलभ्यत्वादत्यनुत्तानः, उदारश्च सकलसुखलाभसाधकत्वाद्, 'एषः' = विवेकरूपः, 'आशयः' = परिणामः । 'अत एव' = विवेकादेव, न तु सूत्रमात्रादपि, 'संवेगामृतास्वादनं', संवेगो = धर्माद्यनुरागो, यदुक्तम् - "तथ्ये धर्मे ध्वस्तहिंसाप्रबन्धे, देवे रागद्वेषमोहादिमुक्ते । साधौ सर्वग्रन्थसन्दर्भहीने, संवेगोऽसौ निश्चलो योऽनुरागः ॥" स एव अमृतं = सुधा, तस्य आस्वादनम् = अनुभवः । ननु क्रियैव फलदा, न तु ज्ञानं, यथोक्तम् - "क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो न ज्ञानात् सुखितो भवेत् ॥' इति किं विवेकग्रहणेन ? इत्याशक्य व्यतिरेकतोऽर्थान्तरोपन्यासेनाह - 'न' = नैव 'अविज्ञातगुणे' = अनीणितज्वराद्युपशमस्वभावे, चिन्तामणौ' = चिन्तारत्ने, 'यत्नः' तदुचित पूजाद्यनुष्ठानलक्षणः । यथा हि चिन्तामणौ ज्ञातगुण एव यत्नस्तथा श्रुतेऽपीति ज्ञानपूर्विकैव फलवती क्रियेति। राग स्वरूप है क्यों कि वह परम पुरुषार्थ मोक्ष की प्राप्ति का घातक है। वह त्याज्य है। सांसारिक फल प्राप्त होने पर राग-द्वेष-मोहादि होता है, मोक्षफल प्राप्त होने पर कोई रागादि नहीं होता । इसलिए मोक्ष की आशंसा निराशंसभाव के समान है। श्रुतधर्म वृद्धि से असङ्ग द्वारा मोक्ष :प्र० - यहां किया गया प्रणिधान (श्रुतधर्म-प्रार्थना) निराशंसभाव का कारण ही है यह नियम कैसे? उ० - सर्वज्ञकथित श्रुतधर्म की उत्कृष्ट वृद्धि से निराशंसभाव स्वरूप मोक्ष निष्पन्न होता ही है, इसलिए वैसा नियम है। कारण पूछिए कि 'यहां भी इस प्रकार का फल होगा ही, ऐसा एकान्त नियम कैसे?' कारण यह है कि श्रुतधर्म की वृद्धि मोक्ष के प्रति अवन्ध्य कारण रूप से सिद्ध है। यह इसलिए, कि यहां मोक्ष स्वरूप फल होने में कोई विसंवाद नहीं है। विसंवाद या अनेकान्त तभी हो सकता है कि जब मोक्ष के स्थानमें कोई दूसरा फल होता अथवा बिल्कुल निष्फलता भी होती । लेकिन श्रुतधर्म की वृद्धि होने पर ऐसा नहीं होता है। इस मोक्षफल में असङ्गभाव होता है। इसमें प्रमाण यह है कि सभी मुमुक्षु जीवों के द्वारा राग-द्वेष-मोह रूप सङ्ग के अभावसे यानी असङ्गभाव से मोक्षफल का संवेदन किया जाता है। ३३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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