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(ल० - श्रुतवृद्धयाशंसा निराशंसभावहेतु :-) पुनर्वृद्धयभिधानं 'मोज्ञार्थिना प्रत्यहं ज्ञानवृद्धिः कार्ये'ति प्रदर्शनार्थं; तथा च तीर्थकरनामकर्महेतून् प्रतिपादयतोक्तम् 'अपुव्वनाणगहणे' इति ।प्रणिधानमेतत्, अनाशंसाभावबीजं, मोक्षप्रतिबन्धेन । अप्रतिबन्ध एष प्रतिबन्धः, असङ्गफलसंवेदनात् ।
(पं० -) 'प्रणिधाने'त्यादि, प्रणिधानम् = आशंसा; एतच्छ्रुतधर्मवृद्ध्यभिलषणं, कीदृगित्याह 'अनाशंसाभावबीजं', अनाशंसा = सर्वेच्छोपरमः, सैव भावः = पर्यायः, तस्य बीजं = कारणं, कथमित्याह 'मोक्षप्रतिबन्धेन' मोक्षप्रतिबद्धं हीदं प्रार्थनं, स चानिच्छारूप: । नन्वप्रतिबन्धसाध्यो मोक्षः, कथमित्थमपि तत्र प्रतिबन्धः श्रेयान् ? इत्याह 'अप्रतिबन्धः' = अप्रतिबन्धसदृशः, 'एषः' = मोक्षविषयप्रतिबन्धः प्रार्थनारूपः । कुत इत्याह 'असङ्गफलसंवेदनात्', असङ्गस्य = रागद्वेषमोहाद्यविषयीकृतस्य, फलस्य = आशंसनीयस्य; संवेदनात् = अनुभवात् । अनीदृशफलालम्बनं हि प्रणिधानं प्रतिबन्धः; परमपुरुषार्थलाभोपघातित्वात्।
जगत में जब यह जिनमत है तभी 'नंदी सया संजमे' = समृद्धि, आबादी, उत्कर्ष, 'सया' = सर्व काल, हमेशा, कहां? 'संयमे' = चारित्र में अहिंसादि व्रतों के पालन में होती है। कहा गया है कि 'पढमं नाणं तओ दया' दया और संयम ज्ञानपूर्वक ही हो सकता है; जिनमत से यथार्थ ज्ञान मिलता है इसलिये उससे संयम - समृद्धि होना युक्तियुक्त है।
किस प्रकार के संयम में ? तो कि 'देवनाग.... भावच्चिए' - 'देव' अर्थात् वैमानिक - ज्योतिष्क देव, 'नाग - सुवण्ण' अर्थात् नागकुमार, सुवर्णकुमार आदि भवनपति देव, 'किन्नर' अर्थात् किन्नर गंधर्व आदि व्यंतर देव, उन चारों निकाय के देवों के गण से, समूह से सब्भूअभावच्चिए' = जूठे, मायावी एवं पौद्गलिक आशंसायुक्त भाव से नहीं किन्तु सद्भूत अर्थात् यथार्थ सच्चे शुद्ध भाव से 'अच्चिए' = अर्चित, पूजित, ऐसा संयम है। संयम वाले पुरुष देवों से पूजित होते ही हैं, यह संयम ही पूजित हुआ।
अब जिनमत कैसा? तो कि 'लोगो जत्थ पइट्ठिओ....मच्चासुरं', 'लोगो' = लोकन, अवलोकन अर्थात् अज्ञान नहीं किन्तु ज्ञान ही जहां प्रतिष्ठित है, रहा हुआ है, तथा, 'जगमिणं' = यह सारा विश्व ज्ञेय विषय रूप से प्रतिष्ठित है, अर्थात् जिनमत से समस्त लोकालोक कथित है। कितनेक मत वाले मात्र मनुष्य लोक,को ही जगत मानते हैं इस की असत्यता सूचित करने के लिए कहा 'तेलोक्क-मच्चासुरं' = तीनों लोक, मनुष्य लोक, असुर लोक इत्यादि अधो, मध्य एवं ऊर्ध्व लोक जिनमत में वर्णित हैं। मनुष्य लोक आकाश में निराधार नहीं रहा है किन्तु असुर यानी पाताललोक उसका आधार है और वह आधेय है, दोनों आधार-आधेय रूप है। अथवा कहिए, जिनमत में तीनों लोक प्रतिपादित है, तब जिनमत आधार हुआ, और मनुष्य असुर सहित त्रैलोक्य प्रतिपाद्य रूप से आधेय हुआ।
___ 'धम्मो वड्डउ'... इस प्रकार का यह श्रुतधर्म (जिनमत) वृद्धि को प्राप्त करे, अर्थात् मेरी आत्मा में बढ़ता रहे, या जगत में अधिकाधिक प्रसरता रहे। वह बढ़ना - प्रसरना भी कभी कभी नहीं किन्तु 'सासओ' = शाश्वत रूप से अर्थात् स्खलित-नष्ट हुए बिना । वह भी ‘विजयओ' = विजय द्वारा; तात्पर्य, जगत में अनर्थ - प्रवृत्त याने लोगों का अहित करने में प्रवर्तमान परदर्शन वालों को पराजित कर-निरुत्तर कर, विजय प्राप्त करने द्वारा । यहां 'सासओ' शब्द 'वड्ढउ' के साथ क्रिया-विशेषण पद है, प्राकृत शैली से लिङ्ग-व्यत्यास होने के कारण 'सासय' के स्थान में सासओ बना है। स्तुतिकार पुनः प्रणिधान व्यक्त करते हैं 'धम्मुत्तरं वड्डउ' अर्थात् यह
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