Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 352
________________ (ल० - तृतीयगाथाव्याख्या - ) इत्थं श्रुतमभिवन्द्याधुना तस्यैव गुणोपदर्शनद्वारेणाप्रमादगोचरतां प्रतिपादयन्नाह, - 'जाईजरामरण' इत्यादि - 'जाईजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्खलविसालसुहावहस्स । को देवदाणवनरिंदगणच्चियस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥ ३ ॥ अस्य व्याख्या, - जातिः = उत्पत्तिः, जरा = वयोहानिलक्षणा, मरणं = प्राणनाशः, शोकः = मानसो दुःखविशेषः, जातिश्च जरा च मरणं च शोकश्चेति द्वन्द्वः । जातिजरामरणशोकान् प्रणाशयति = अपनयति जातिजरामरणशोकप्रणाशनः, तस्य । तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानाज्जात्यादयः प्रणश्यन्त्येव; अनेन चास्यानर्थप्रतिघातित्वमाह । कल्यम् = आरोग्य, कल्यमणतीति कल्याणं, कल्यं शब्दयतीत्यर्थः । पुष्कलं = संपूर्णम् । न च तदल्पं, किन्तु विशालं = विस्तीर्णं, सुखं प्रतीतं, कल्याणं पुष्कलं विशालं सुखम् आवहति प्रापयति, कल्याणपुष्कलविशालसुखावहः, तस्य । तथा च श्रुतधर्मोक्तानुष्ठानादुक्तलक्षणमपवर्गसुखमवाप्यत एव । अनेन चास्य विशिष्टार्थप्रसाधकत्वमाह । कः प्राणी, देवदानवनरेन्द्रगणार्चितस्य श्रुतधर्मास्य, सारं = सामर्थ्यम्, उपलभ्य = दृष्ट्वा, विज्ञाय, कुर्यात् प्रमादं सेवेत ? सचेतसश्चारित्रधर्मे प्रमादः कर्तुं न युक्त इति हृदयम् । हूँ। अथवा, सीमाधर का जो माहात्म्य, (माहात्म्य शब्द अध्याहार से लेना) उसको वन्दना करता हूँ। अथवा, 'सीमाधरस्स वंदे' = 'सीमाधरस्स वंदनं करेमि' - सीमाधर के प्रति वन्दना करता हूँ। यहां श्रुतधर्म को मर्यादाघर कहा, क्यों कि श्रुतधर्म याने आगमवान पुरुष ही मर्यादा को धारण करते हैं। ऐसे सीमाधर भी कैसे हैं ? तो कि, 'पप्फोडियमोहजाल' = अत्यन्त स्फोटित कर दिया जड़ से तोड़ दिया है मिथ्यात्वादि मोह के जाल को जिन्होंने, वैसे। मोहजाल का प्रध्वंस करने से वे 'पप्फोडियमोहजाल' कहे जाते हैं; और श्रुतधर्म होने पर विवेकी पुरुष का मोहजाल नष्ट हो ही जाता है। तृतीय गाथा की व्याख्या :___इस प्रकार श्रुत को वन्दना कर अब उसी के गुणों के प्रदर्शन द्वारा 'उस श्रुत को प्रमाद का विषय बनाना उचित नहीं', - यह प्रतिपादन करने वाली तीसरी गाथा कही जाती है - 'जाई-जरा-मरण-सोग-पणासणस्स, कल्लाण-पुक्खलविसालसुहावहस्स । को देव-दाणव-नरिंद-गणच्चिअस्स धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥ ३ ॥' अर्थ :- जन्म, जरा, मृत्यु और शोक के नाश करने वाले, कल्याण एवं बहुत विशाल सुख के उत्पादक, तथा देव, दानव और राजाओं के समूह से पूजित श्रुतधर्म की सामर्थ्य देख कर कौन (उसके सदुपयोग रूए सच्चारित्र में) प्रमाद करे? इसकी व्याख्या : 'जाई' = जन्म, 'जरा' = वय की हानि, 'मरण' = प्राण का नाश, 'सोग' = शोक, मानसिक दुःख - विशेष, 'पणासणस्स' = अत्यन्त नाश करने वाले (श्रुतधर्म का) जाइ, जरा, मरण, और सोग शब्दों का द्वन्द्व समास होकर सामासिक शब्द बना 'जाइजरामरणसोग' उसका पणासण' = अत्यन्त नाश करने वाला । उस पर ३२७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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