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द्वितीयगाथाव्याख्या - ) तदेवं श्रुतधर्म्मादिकराणां स्तुतिमभिधायाधुना श्रुतधर्म्मस्याभिधित्सुराह, - 'तमतिमिर' इत्यादि -
('तमतिमिरपडलविद्धंसणस्स, सुरगणनरिंदमहियस्स | सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडियमोहजालस्स ॥ २ ॥' )
अस्य व्याख्या, तमः = अज्ञानं, तदेव तिमिरं, तमस्तिमिरम् । अथवा तमः = बद्धस्पृष्टनिधत्तं ज्ञानावरणीयं, निकाचितं तिमिरम् । तस्य पटलं = वृन्दं, तमस्तिमिरपटलम्, तद् विध्वंसयति = विनाशयतीति तमस्तिमिरपटलविध्वंसनः, तस्य । तथा चाज्ञाननिरासेनैवास्य प्रवृत्तिः । तथा, सुरगणनरेन्द्रमहितस्य; तथा ह्यागममहिमां (महिमानं) कुर्वन्त्येव सुंरादयः । तथा, सीमां = मर्यादां धारयतीति सीमाधरः, तस्येति कर्म्मणि षष्ठी, तं वन्दे; तस्य वा यन्माहात्म्यं तद् वन्दे, अथवा तस्य वन्दे इति तद्वन्दनां करोमि; तथा ह्यागमवन्त एव मर्यादां धारयन्ति । किं भूतस्य ? प्रकर्षेण स्फोटितं, मोहजालं = मिथ्यात्वादि, येन स तथोच्यते, तस्य; तथा चास्मिन् सति विवेकिनो मोहजालं विलयमुपयात्येव ।
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अनादि शुद्ध सर्वज्ञ कह सकते हैं। इस प्रकार आप की (अन्य दर्शनियों की तरह हमारे जैनों के वहां तत्त्व रूप से अपौरुषेय वचन नहीं है, जैसा कि आपके द्वारा हमारे प्रति आरोपित किया गया है। इस चर्चा का विस्तार 'सर्वज्ञसिद्धि' आदि ग्रन्थ में किया गया है। इसलिए अब यहां इसका प्रयत्न नहीं किया जाता है ।
द्वितीयगाथा व्याख्या :
श्रुतधर्म के आदिकर तीर्थकर की स्तुति कर के ही श्रुतधर्म की स्तुति करनी चाहिए। इसलिए इस प्रकार उन तीर्थंकर की स्तुति कहने के बाद अब श्रुतधर्म की स्तुति कहने की इच्छा वाले स्तुतिकार यह द्वितीय गाथा कहते हैं, -
'तम - तिमिर - पडल-विद्धंसणस्स सुरगण-नरिंद- महियस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडियमोहजालस्स ॥ २ ॥'
अर्थात् अज्ञान स्वरूप अन्धकार के समूह का नाश करने वाले, देवसमूह एवं नरेन्द्रों से पूजित, तथा मोहजाल को जड़ से तोड देने वाले मर्यादायुक्त (श्रुतधर्म याने आगम) को मैं वन्दन करता हूँ । 'सीमाधर' का अर्थ 'मर्यादा में रखने वाला' भी होता है। श्रुत-आगम आत्मा को सच्चारित्र की मर्यादा में रखता है 1
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यहां 'तम' अज्ञान, वही तत्व प्रकाश का आच्छादक होने से 'तिमिर' अन्धकार रूप है। अथवा 'तम' = बद्ध, स्पृष्ट एवं निधत्त कर्म, और 'तिमिर' = निकाचित कर्म । (सूइयों का (१) रस्सी से समूह बन्धन, (२) उनको कूट करके परस्पर संलग्न बन्धन, (३) तपा करके अन्योन्य चिपक जाय ऐसा मिलन, (४) पिघला करके समरस हो जाए ऐसा मिलन, - इन चार प्रकार के संबन्ध के दृष्टान्त से जीव के साथ कर्मो का बन्ध, स्पृष्टता, निधत्ति और निकाचना, इन चार प्रकार का संबन्ध होता हैं। और वहां कर्म बद्ध स्पृष्ट, निद्धत्त, एवं निकाचित कहे जाते हैं ।) उन कर्म रूप तमतिमिर के 'पडल' = समूह के 'विद्धंसणस्स' = विध्वंस करते वाले (श्रुतधर्म) को । इससे सूचित किया कि सीमाधर श्रुतधर्म की प्रकाशनप्रवृत्ति अज्ञान को हटा कर ही होती है । तथा 'सुरगणनरिंदमहियस्स' = देवसमूह एवं राजाओं से पूजित (श्रुत) को यह इस प्रकार कि आगम की महिमा देव आदि करते ही हैं। तथा, 'सीमाधरस्स' = मर्यादा को जो धारण करता है उसको! यहां षष्ठी विभक्ति कर्म के अर्थ में दी गई है; इसलिए 'सीमाधरं वंदे' - प्रयोग के समान अर्थ होता है ! 'वंदे' = मैं वन्दना करता
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