Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 345
________________ __ (ल० - अदृश्यवक्त्राशङ्का - ) न चैतत् क्वचिद् ध्वनदुपलभ्यते । उपलब्धावप्यदृश्यवक्त्रा - शङ्कासम्भवात्, तन्निवृत्त्युपायाभावाद् । (पं० -) अभ्युच्चयमाह 'न च' = नैव, 'एतद्' = अपौरुषेयतयाभ्युपगतं वेदवचनं, केवलं' = पुरुषव्यापाररहितं, 'क्वचिद्' = आकाशादौ, 'ध्वनत्' = शब्दायमानम् ‘उपलभ्यते' = श्रूयत इति । उपलभ्यत एव क्वचित्कदाचित्किञ्चिच्चेद्, इत्याह उपलब्धावपि' = श्रवणेऽपि क्वचिद्ध्वनच्छब्दस्य, अदृश्यवक्त्राशङ्कासम्भवाद्' = अदृश्यस्य पिशाचादेर्वक्तुराशङ्कासम्भवात् 'तेन भाषितं स्यादि'त्येवं संशयभावात् । 'असारमेतदिति संबध्यते, कुत इत्याह 'तन्निवृत्त्युपायाभावाद्' = अदृश्यवक्त्राशङ्कानिवृत्तेरुपायाभावात् । न हि कश्चिद्धेतुरस्ति येन साऽऽशङ्का निवर्तयितुं शक्यत इति। (ल०-) अतीन्द्रियार्थदर्शिसिद्धेः, अन्यथा तदयोगात्, पुनस्तत्कल्पनावैयाद्, असारमेतदिति । (पं० -) एतदपि कुत इत्याह 'अतीन्द्रियार्थदर्शिसिद्धेः' अतीन्द्रियं पिशाचादिकमर्थं द्रष्टुं शील: पुरुष एव हि तन्निवृत्त्युपाय:, तत एव पिशाचादिप्रभवमिदं, स्वत एव वा ध्वनदुपलभ्यते' इत्येवं निश्चयसद्भावात् । व्यतिरेकमाह 'अन्यथा' = अतीन्द्रियार्थदर्शिनमन्तरेण, 'तदयोगाद्' = अदृश्यवक्त्राशङ्कानिवृत्तेरयोगात् । यदि नामातीन्द्रियार्थदर्शी सिद्धयति ततः का क्षतिरित्याह 'पुनस्तत्कल्पनावैयर्थ्यात्', अतीन्द्रियार्थदर्शिनमभ्युपगम्य पुनः = भूयः, तत्कल्पनावैयाद् = अपौरूषेयवचनकल्पनावैयर्थ्यात् । सा ह्यतीन्द्रियार्थदर्शिनमनभ्युपगच्छतामेव सफला; यथोक्तम् - 'अतीन्द्रियाणामर्थानां, साक्षाद् द्रष्टा न विद्यते । वचनेन हि नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥ १ ॥' 'असारं' = परिफल्गु, 'एतद्' यदुतापौरुषेयं वचनमिति । अपौरुषेयत्व असंभवित : इस दूसरे धर्मसार' प्रकरण के वचन से भी अपौरुषयत्व खण्डन का समर्थन किया जाता है; 'धर्मसार' प्रकरण में वचन की परीक्षा कही गई है; - 'असंभवि अपौरुषेयम्' अर्थात् पुरुष से उच्चारित नहीं ऐसा वचन असंभवित है । 'श्री ललितविस्तरा' वृत्ति के रचयिता इसको स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अपुरुषकृत वचन वंध्यापुत्र समान या गधे के सींग के तुल्य असत् होने से, विद्वान पुरुषों की सभा में विद्वान के द्वारा ऐसे अपौरुषेयत्व का उपन्यास नहीं किया जाना चाहिए, अर्थात् इसका पक्ष स्थापित करने में विद्वत्ता को कलंक लगता है। कारण यह है कि अभिप्रेत साध्य जो अपौरुषेय वचन, इसमें धर्म के स्वरूप की ही हानि है, अर्थात् उसमें वचनत्व ही नहीं उत्पन्न हो सकता । यह इस प्रकार, वचन का अर्थ है 'जो बोला जाए' और 'बोलना' उच्चारण करना, यह पुरुष की क्रिया से संबद्ध है। अब अगर पुरुषक्रिया ही न हो, तब कहां से उच्चारण के स्वरूप वाला वचन अस्तित्व ही पा सकता है ? इस पर से अनुमान यह होगा कि - उपन्यास का जो विषय उपन्यास-कर्ता के वचन से ही बाधित होता है, वह विद्वान से विद्वत्पर्षद् में उपन्यास के योग्य नहीं है, उदाहरणार्थ - ऐसा उपन्यास किया जाए कि 'मेरी माता बन्ध्या है' या 'मेरा पिता कुमार-ब्रह्मचारी है अर्थात् शादी रहित, बचपन से आज तक ब्रह्मचारी है' तो इसका विषय वन्ध्यापन, ब्रह्मचारिपन अपने मातृत्व पितृत्व के कथन से ही बाधित है। कथन यह है कि 'मेरी माता' अर्थात् पुत्रवती माता, अब यह वन्ध्या याने बिल्कुल पुत्र रहित कैसे? वंध्यत्व बाधित है। इस प्रकार 'मेरा पिता' अर्थात् पुत्रजनक, वहां ब्रह्मचारीपन बाधित है। इसी प्रकार अपौरुषेय वचन को 'वचन' कहना इसका तात्पर्य यही है कि वह पुरुषकृत है, इससे अब अपौरुषेयत्व बाधित हो जाता है। ३२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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